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________________ श्रमण संघ : ३५९ . श्वेताम्बर परम्परा के अनेक व्याख्या ग्रन्थों में भी 'आचार्य' शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ प्रस्तुत किये गये हैं। जिनदासगणि महत्तर ने आवश्यक चूर्णि में कहा है-'आङ मर्यादाभिविध्यो चरिर्गत्यर्थे, मर्यादया चरन्तीत्याचार्याः, आचारेण वा चरन्तीत्याचार्याः' आवश्यक सूत्र की मलयगिरि वृत्ति के अनुसार 'आचार्य' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-'चर गति-भक्षणयोः आङ् पूर्व आचय्यंते कार्याथिभिः सेव्यते इत्याचार्यः ऋवर्ण व्यंजनाद्याणिति ।' भगवतीसूत्र के वृत्तिकार अभयदेवसूरि के अनुसार-"आ मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ने सेव्यन्ते - जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकांक्षिभिरित्याचार्याः अथवा आचारो ज्ञानाचारादिः पञ्चधा । 'आ' मर्यादया वा चारो विहारः, आचारस्तत्र साधवः स्वयं करणात्प्रभाषणात्प्रदर्शनाच्चेत्याचार्याः । अर्थात् जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित आगम ज्ञान को हृदयंगमकर उसे आत्मसात् करने की उत्कण्ठा वाले शिष्यों द्वारा जो विनयादिपूर्ण मर्यादापूर्वक सेवित हों उन्हें आचार्य कहते हैं। यही आचार्य के लक्षणों में कहा है कि जो सूत्र और अर्थ-उभय के ज्ञाता हों, उत्कृष्ट कोटि के लक्षणों से युक्त हों, संघ के लिए मेढि अर्थात् आधारस्तम्भ के समान हों, जो अपने गण, गच्छ अथवा संघ को समस्त प्रकार के संतापों से पूर्णतः विमुक्त रखने में सक्षम हों तथा जो अपने शिष्यों को आगमों की गूढार्थ सहित वाचना देते हों, उन्हें आचार्य कहते हैं । आचार्य वीरसेन ने 'आचार्य' के लक्षण बतलाते हुए कहा है जो प्रवचन रूपी समुद्र-जल के मध्य स्नान करने से अर्थात् परमात्मा के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयो है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु के समान निष्कम्प है, जो शूरवीर है, सिंह के समान निर्भीक है, जो वर्य (श्रेष्ठ) हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं सौम्यमूर्ति है, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्लेप है-ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं । ऐसे ही आचार्य संघ के संग्रह में कुशल, सूत्रार्थ में विशारद होते हैं, जिनकी कीर्ति सर्वत्र फैल रही है, जो सारण (आचरण), वारण (निषेध), और शोधन (व्रतों की शुद्धि) करने वाली क्रियाओं में निरन्तर उद्युक्त हैं, वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। १. आवश्यकसूत्र मलयगिरि वृत्ति द्वितीय, २. भगवती सूत्र वृत्ति १. १. १. मंगलाचरण । ३. सुत्तत्थविउलक्खण-जुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य । गणतत्तिविष्पमुक्को, अत्थं वाएइ आयरिओ ।। -भगवतीसूत्र अभयदेवसूरि कृत वृत्ति १. १. १. मंगलाचरण में उद्धृतः ४. षट्खण्डागम धवला टीका ११११, १।२९-३०-३१ तथा ४९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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