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________________ ३५८ : मैलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ही आचार्य स्वयं प्रकाशमान रहकर दूसरों को प्रकाशित करते हैं । इसीलिए आचार्य को सम्पूर्ण संघ का 'नेत्र' भी कहते हैं । २ स्वरूप : आचार्य का सीधा सम्बन्ध आचार से है इसीलिए शिवाय ने कहा है कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य - इन पाँच आचारों का स्वयं निरतिचार पालन करता है और इनमें दूसरों को प्रवृत्त करता है वह आचार्य है 13 मूलाचार में भी कहा गया है कि जो सर्वकाल सम्बन्धी आचार को जानता है तथा आचरण योग्य का स्वयं आचरण करता है और अन्य साधुओं को आचरण में प्रवृत्त करता है उसे आचार्य कहते हैं । क्योंकि जिस कारण आचार्य पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करते हुए सुशोभित होते हैं उसी प्रकार अपने द्वारा आचरित आचार दूसरों को दिखाते हुए सुशोभित होने के कारण उनका 'आचार्य' नाम सार्थक है । 'आचार्य' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ करते हुए आचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम की धवला टीका के आदिमंगल रूप नवकार मंत्र की व्याख्या में कहा है - पञ्चविधमाचारं चरन्ति चारयन्तीत्याचार्याः ।' अर्थात् जो पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरे साधुओं से पालन कराते हैं उन्हें 'आचार्य' कहते हैं ।" अपराजितसूरि के अनुसार “पञ्चस्त्रचारेषु ये वर्तन्ते पराश्च वर्तयन्ति ते आचार्याः । अर्थात् जो पाँच आचारों में स्वयं प्रवृत्त होता है और दूसरों को भी प्रवृत्त कराता है वे आचार्य हैं । पूज्यपाद के अनुसार 'आचरन्ति तस्माद् व्रतानीत्याचार्यः -- अर्थात् जिसके निमित्त से व्रतों का आचरण करते हैं वह आचार्य कहलाता है । वसुनन्दि के अनुसार " आचर्यतेऽस्मादाचार्यः' अर्थात् जिनसे आचरण ग्रहण किया जाता है उन्हें आचार्य कहते हैं ।" १. जह दीवा दीवसयं पईप्पए सो उ दिप्पए दीवो । दीव समा आयरिया अप्पं च परं च दीवंति || - आचारांग नियुक्ति गाथा ८, चंदगविज्झं पइग्णयं गाथा ३०. २. स एव भवसत्ताणं चक्खुभूए वियाहिए - गच्छाचार पयन्ना अधि० १. ३. भ० आ० गाथा ४१८, देखें - आवश्यक निर्युक्ति ९९४. ४. मूलाचार ७१८, ९. ५. धवला १।१, १, १, ४८1८. ६. भगवती आराधना विजयोदया टोका ४४४. ७. सर्वार्थसिद्धि ९।२४१४. ८. मूलाचार वृत्ति ४।१५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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