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________________ श्रमण संघ : ३५७ विशाल होते थे अतः बड़े संघों के सुचारु संचालन के लिए विभिन्न इकाईयों और पदों की आवश्यकता होती थी किन्तु अब उन विशाल संघों का अभाव होने से गण, गच्छ, कुल एवं इनके स्वरूप की परम्परा भी प्रायः कम है । फिर भी संघीय व्यवस्था के प्रमुख आधार आज भी वही हैं। इसके लिए षडावश्यकों का पालन, आहार, विहार, व्यवहार और तप आदि के विधान श्रमण संघ को दिनचर्या में सम्मिलित होने से उनकी सामुदायिकता, स्वतंत्रता और आत्मोत्कर्ष की भावना का दिनों-दिन विकास होता रहता है । वस्तुतः जैन श्रमण संघ में संघीय नेतृत्व एवं गणतंत्रीय स्वरूप का जैसा सम्यक् विकास मिलता है वैसा अन्य परम्पराओं में दुर्लभ है। संघ के आधार : मूलाचार में कहा है कि आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधरये संघ के पाँच आधार हैं। जहां ये आधार नहीं है वहाँ रहना उचित नहीं है।' क्योंकि सम्पूर्ण संघ का कुशल संचालन इन्हीं के आधार से होता है । शिष्यों को दीक्षा और अनुशासन रूप अनुग्रह करने में कुशल आचार्य होते हैं । धर्म के उपदेशक उपाध्याय कहलाते हैं जिनके पास आकर अध्ययन-अध्यापन का कार्य सम्पन्न होता है। संघ का प्रवर्तन करने वाले प्रवर्तक होते हैं । जिनसे आचरण स्थिर होते हैं ऐसे मर्यादा के उपदेशक को स्थविर तथा जो गण को धारण करते हैं अर्थात् गण के रक्षक को गणधर कहते हैं । इन पाँच आधारों से ही संघ की परिपूर्णता एवं प्रतिष्ठा रहती है : __ संघ के इन पाँच आधारों का क्रमशः विवेचन प्रस्तुत है। १. आचार्य : श्रमण परम्परा में संघ नायक के रूप में आचार्य (आयरिय) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नमस्कार महामंत्र में आचार्य परमेष्ठी को 'णमो आयरियाणं' कहकर उनकी महनीयता और महत्ता प्रकाशित की गई, जो कि अप्रतिम गौरव का सूचक है। आचार्य पर ही ऋषि, मुनि, यति और अनगार रूप चातुर्वण्य संघ अथवा मुनि, आर्यिका एवं श्रावक, श्राविका रूप चतुविष संघ के संगठन, संवद्धन, अभिरक्षण, अनुशासन एवं उसके सर्वाङ्गीण विकास का सामूहिक एवं प्रमुख दायित्व होता है। वस्तुतः आचार्य दीपक के समान होता है । जैसे एक दीपक स्वयं दीप्त रहकर उससे सैकड़ों दीप प्रज्ज्वलित हो जाते हैं वैसे १. तत्थ ण कप्पा वासो जत्थ इमे पत्थि पंच आधारा । आइरियउवज्झाया पवत्तथैरा गणघरा य ॥ मूलाचार ४।१५५.. २. सिस्साणुग्गहकुसलो घम्मुवदेसो य संघ वट्टवओ। . मज्जादुवदेसोवि य गणपरिरक्खो मुणेयन्वो ॥ वही ४१५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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