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________________ ३५६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन चतुर्विध संघ में आयिका का द्वितीय स्थान है । श्रमणों और आर्यिकाओंसभी का नेतृत्व करने वाला 'आचार्य' होता है। आचार्य ही श्रमण संघ का प्रमुख होता है । आत्म-कल्याण के इच्छुक योग्यजनों को वैराग्य, संयम आदि की दृढ़ता के आधार पर दीक्षित करना तथा संघ के सम्पूर्ण नेतृत्व एवं मार्गदर्शन प्रदान करना आचार्य का ही कार्य है। आचार्य ही योग्यताओं के आधार पर संघ के विभिन्न कार्य विभाजित करते हैं। संघ में आचार्य के पश्चात् उपाध्याय का स्थान है। विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन आदि रूप ज्ञान के विकास का दायित्व 'उपाध्याय' पर होता है । संघ की विभिन्न इकाईयों में गण की व्यवस्था का कार्य 'प्रवर्तक' करते थे। धर्म प्रचार तथा संघ-विकास का कार्य 'गणावच्छेदक' करते थे। गण में दीक्षित साधुओं की भावना को गतिशील बनाना और आधृति उत्पन्न हो जाने पर पुनः धृति उत्पन्न करने का कार्य स्थविर' करता था। आयिका संघ का दायित्व प्रवर्तनी, गणिनी अथवा आयिका-प्रमुखा पर होता था। प्रवचनसार में कहा है। कि विशाल श्रमण संघ में दीक्षागुरु और निर्यापक दोनों पृथक्-पृथक भी होते थे। श्रमण वेष धारण के समय जो प्रव्रज्या (दीक्षा) देते हैं वे 'दीक्षा गुरु' है तथा संयम के सर्वथा या एकदेश भङ्ग (छेद) होने पर प्रायश्चित्त देकर आगम के वैराग्यवर्धक वचनों द्वारा उन छेदों का निवारण करके पुनः निर्दोष संयम मार्ग में स्थापित करते हैं वे 'निर्यापक' कहलाते हैं। इन्हें ही उपस्थापक, शिक्षागुरु या श्रुतगुरु भी कहते हैं । इस तरह विशाल संघ में दीक्षा गुरु (आचार्य) के अतिरिक्त छेदोपस्थापक आचार्य भी होते थे। किन्तु छोटे श्रमणसंघ में एक ही आचार्य दोनों काम करते हैं। गण, गच्छ, कुल रूप संघ की विभिन्न इकाईयों में गच्छ से तात्पर्य साथसाथ रहने वाले श्रमणों के समूह से है। जितने श्रमण एक साथ रहकर विहार एवं चातुर्मास करते हैं उनके समूह को 'गच्छ' कहते हैं । विभिन्न गच्छ मिलकर 'कुल' का रूप धारण करते हैं । एक ही आचार्य के शिष्य-प्रशिष्यों के समूह को 'कुल' कहा जाता है । कुलों में एक ही प्रकार की आचार-विचार प्रणाली का अनुसरण करने से ये सब मिलकर 'गण' का रूप धारण कर लेते हैं और गण का समूह संघ कहलाता है। उपयुक्त संघ व्यवस्था प्राचीन काल में तब प्रचलित थी जब संघ बहुत १. लिंगग्गहणे तेसिं गुरुत्ति पव्वज्जदायगो होदि । छेदेसूवट्ठवगा सेसा णिज्जावणा समणा ॥ -प्रवचनसार २१०. दोनों टीकाओं सहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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