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श्रमण संघ :३५५
क्योंकि साधु ही संघ है । साधुओं से भिन्न कोई संघ नाम की वस्तु नहीं है।' यहाँ धारणा का अर्थ है अपने धर्म-कर्म की शक्ति को भ्रष्ट करने वाले निमित्तों को दूर करके उसको शक्ति प्रदान करना । इसी को वैयावृत्त्य भी कहते है। ___ मुनि, आयिका, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ अथवा ऋषि, मुनि, यति और अनगार रूप चातुर्वण्यं संघ चारों गतियों (नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव) में भ्रमण का नाशक हैं । अतः नवप्रसूता गाय जैसे अपने बछड़े पर वात्सल्य करती है वैसे ही प्रयत्न पूर्वक संघ पर वात्सल्य भाव रखना चाहिए। क्योंकि संघ भयभीत जनों के लिए आश्वासन देता है। वह निश्छल व्यवहार के कारण विश्वासभूत, समता के कारण शीतगृहतुल्य, अविषमदर्शी होने के कारण मातापिता तुल्य तथा सब प्राणियों के लिए शरणभूत होता है अतः संघ से डरना नहीं चाहिए । नन्दिसूत्र के अनुसार संघ कमलवत् है, कर्म रज रूपी जलराशि से वह कमल की तरह ऊपर अलिप्त ही रहता है। श्रुतरत्न (ज्ञान या आगम) उसके दीर्घनाल, पंचमहाव्रत उसकी स्थिर कणिका तथा उत्तरगुण उसकी मध्यवर्ती केशर (पराग) है, जो श्रावक रूपी भ्रमरों से सदा घिरा रहता है, जिनदेव रूपी सूर्य के तेज. से प्रबुद्ध होता है तथा जिसमें श्रमणगण रूपी सहस्र पत्र होते है। मूलाचारकार ने गृहस्थ धर्म एवं श्रावक का भी अनेक प्रसंगों में उल्लेख किया है।" संघ व्यवस्था के आधार
तीर्थकर महावीर के श्रमण संघ की व्यवस्था गणतन्त्रीय पद्धति पर आधारित थी और यही परम्परा आज तक चली आ रही है। संघ-व्यवस्था का मूल लक्ष्य अहिंसा, स्वतंत्रता और सापेक्षता के आधार पर आत्म-कल्याण करना है । विशाल संघ के सुचारु संचालन हेतु संघ के कार्यों को विभाजित करके व्यवस्था करना आवश्यक होता है ताकि आत्मकल्याण के मार्ग में किसी को किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो। इसके लिए आचार्य आवश्यकतानुसार उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणी, गणधर और गणावच्छेदक आदि पदों का सृजन और तदुनुकूल योग्य श्रमणों को इन पर प्रतिष्ठित करता था।
१. साधुस्स धारणाए वि होइ तह चेव धारिओ संघो ।
साधू चेव हि संघो ण हु संघो साहुवदिरित्तो ।। भ० आ० ३२६. २. चादुव्वण्णे संघे चदुगदिसंसारणित्थरणभूदे ।
वच्छल्लं कादव्वं वच्छेगावी जहा गिद्धी । मूलाचार ५।६६. ३. व्यवहार भाष्य ३२६. ४. नन्दिसूत्र स्थविरावली ७-८. ५. मुलाचार ७१३३, ३४, ३५.
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