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________________ ३५४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन करते हैं वे श्रमण हैं तथा ऐसे श्रमणों के समुदाय को श्रमण संघ कहते हैं।' वस्तुतः गुणों का समूह रूप संघ समस्त प्राणियों को सुख देनेवाला, निकट भव्य जीवों का आधार तथा माता-पिता की तरह क्षमा प्रदान करने वाला होता है । सामान्यतः चातुर्वण्य संघ चतुर्विध संघ का ही पर्यायवाची माना जाता है। ऋद्धि प्राप्त श्रमण ऋषि कहे जाते हैं। इनके चार भेद हैं-राजषि, ब्रह्मषि, देवर्षि और परमर्षि । विक्रिया ऋद्धि और अक्षीण ऋद्धिधारी ऋषि राजर्षि कहे जाते हैं। बुद्धि, ऋद्धि और औषधि ऋद्धिधारी ब्रह्मर्षि है । गगन गमन ऋद्धि से सम्पन्न साधु देवर्षि तथा केवलज्ञानो भगवान् परमषि कहलाते हैं । संघ की महत्ता-'संघ' शब्द स्वयं अपने आप में एकता, सुव्यवस्था, सुसंगठन और शक्ति का द्योतक है । एकाको जीवन का अपना विशेष महत्त्व नहीं होता बल्कि अनाचार को ओर प्रवृत्ति की सदा आशंका बनी रहती है । विशेषकर जिन्हें लौकिक आचार-विचार और व्यवहार से अलग, आत्म-कल्याण के लिए त्याग और संयममय जीवन इसी संसार में रहकर व्यतीत करना है, उन्हें तो संघ में रहकर ही अपने धर्म का निर्विघ्न पालन अनिवार्य हो जाता है। इन्हीं सब दृष्टियों से श्रमणों को एकाको विहार का निषेध करके ससंघ रहने और विहार करने का विधान है । बृहत्कल्पभाष्य में संघ स्थित श्रमण को ज्ञान का अधिकारी बताया है। वही दर्शन व चारित्र में विशेष रूप से स्थिर होता है । वस्तुतः उपशम को ही श्रमण धर्म का सार कहा है। इस सांसारिकता के बीच एकल विहार युक्त जीवन में विशुद्धतापूर्वक अपने धर्म का निर्वाह कठिन है। क्योंकि श्रमण धर्म का आचरण करते हुए किसी प्रकार की कषायों की उत्कटता होती है तो ईख के पुष्प की तरह उसके व्रत-नियम सब निरर्थक हो जाते हैं । अतः संघ में रहकर ज्ञान, ध्यान आदि द्वारा आत्मकल्याण रूप अपने लक्ष्य को प्राप्त करना श्रेयस्कर है। शिवार्य ने ठीक ही कहा है कि जैसे आचार्य को धारणा से संघ की धारणा होती है वैसे ही एक साधु की धारणा से साधु समुदाय की धारणा होती है, १. श्रमयन्ति तपस्यन्ति इति श्रमणाः तेषां समुदायः श्रमणसंघः-भ० आ० वि० टीका ५१० पृ० ७३०. २. भ० आ० ७१३. ३. प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति गाथा २४९. ४. नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य-वृहत्कल्पभाष्य ५७१३, ५. बृहत्कल्पसूत्र ११३४, दशवै० नियुक्ति ३०१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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