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पंचम अध्याय
श्रमण संघ
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जैन धर्म में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों की एक लम्बी परम्परा है । तीर्थंकरों के जीवन और उनके संघ के विषय में जानकारी हेतु जब उपलब्ध तद्विषयक साहित्य का अध्ययन करते हैं तो प्रत्येक तीर्थंकर के समय एक सुव्यवस्थित श्रमण संघ की झलक दिखलाई पड़ती है । भगवान् महावीर के सुसंगठित श्रमण संघ की सम्यक् परम्परा प्राचीनकाल से अविच्छिन्न रूप में चली आ रही है । आज भी इसी पथ पर श्रमणों एवं आर्यिकाओं का संयमपूर्ण जीवन साधना पथ पर गतिशील है । स्वरूप :
गुण समूह को संघ कहते हैं, कर्मों के विमोचक को संघ कहा जाता है । दर्शन, ज्ञान और चरित्र में जो संघात ( रत्नत्रय की समन्विति अथवा मेल) को प्राप्त है उसे संघ कहते हैं ।" सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र रूप रत्नत्रय से युक्त श्रमणों के समुदाय को संघ कहते । २ संघ को 'प्रवचन' शब्द से भी अभिहित किया जाता है । जिसमें रत्नत्रय का प्रवचन -उपदेश किया जाता है ऐसे मुनि आर्यिका और श्रावक-श्राविका के समूह का नाम संघ है । ये ही श्रमण संघ के चार अंग हैं । इसे ही चतुविध संघ कहते हैं तथा ऋषि, मुनि, यति और अनगार - इनका समुदाय चातुर्वर्ण्य संघ है । इस प्रकार जो श्रम अर्थात् तपस्या
१. संघो गुण संघाओ संघो य विमोचिओ य कम्माणं ।
दंसणणाणचरिते
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संघायंतो हवे संघो ॥ भ० आ० ७१४. २. (क) रत्नत्रयोपेतः श्रमणगणः संघ - सर्वार्थसिद्धि ६।१३ पृ० ३३१. (ख) सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रय भावनापराणां चतुर्विधानां श्रमणानां गणः सङ्घ इति कथ्यते - तत्त्वार्थवार्तिक ६।१३।३ पृ० ५२३.
३. प्रवचनं संघः । सर्व एव प्रोच्यते रत्नत्रयं यस्मिन्निति शब्दव्युत्पत्ती संघवाची भवति प्रवचन शब्दः - भ० आ० विजयोदया टीका गाथा ४९३. पृ० ७१६. ४. ( क ) चादुव्वण्णस्स चातुर्वर्णस्य श्रमण संघस्य । अत्रश्रमणशब्देन श्रमणशब्दवाच्या ऋषिमुनियत्यनगारा ग्राहाः । अथवा श्रमणधर्मानुकूल श्रावकादिचतुर्वर्णसंध: । - प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति २४९.
(ख) ऋष्यायिका श्रावक श्रविकानिवहः संघः -- भावपाहुड टीका ७८. २४
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