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________________ व्यवहार : ३४९ स्वाध्याय आदि क्रिया भी निरुपद्रव न हो सकती हो, ऐसे ग्राम-नगर आदि में वर्षाकाल प्रारम्भ हो जाने पर भी वर्षावास व्यतीत न करे। __ कल्पसूत्र-कल्पलता के अनुसार वर्षावास के योग्य स्थान में निम्नलिखित गुण होना चाहिए-जहाँ विशेष कीचड़ न हो, जीवों को अधिक उत्पत्ति न हो, शौच-स्थल निर्दोष हो, रहने का स्थान शान्तिप्रद एवं स्वाध्याय योग्य हो, गोरस की अधिकता हो, जनसमूह भद्र हो, राजा धार्मिक वृत्ति का हो, भिक्षा सुलभ हो, श्रमण-ब्राह्मण का अपमान न होता हो इत्यादि । २ वर्षावास में भी विहार करने के कारण : अपराजितसूरि के अनुसार वर्षा धारण कर लेने पर भी यदि दुर्भिक्ष पड़ जाए, महामारी फैल जाये, गाँव अथवा प्रदेश में किसी कारण से उथल-पुथल हो जाए, गच्छ का विनाश होने के निमित्त आ जाये तो देशान्तर में जा सकते हैं। क्योंकि ऐसी स्थिति में वहाँ ठहरने से रत्नत्रय को विराधना होगी । आषाढ़ की पूर्णमासी बीतने पर प्रतिपदा आदि के दिन देशान्तर गमन कर सकते हैं। स्थानांगसूत्र में इसके पांच कारण बताये है-१. ज्ञान के लिए । २. दर्शन के लिए, ३. चारित्र के लिए, ४. आचार्य या उपाध्याय की मृत्यु के अवसर पर तथा ५. वर्षाक्षेत्र से बाहर रहे हुए आचार्य अथवा उपाध्याय का वैयावृत्त्य करने के लिए। और भी कहा है कि निम्रन्य और निप्रन्थियों को प्रथम प्रावृट् चातुर्मास के पूर्वकाल में ग्रामानुग्राम विहार नहीं करना चाहिए । किन्तु इन पाँच कारणों से विहार किया भी जा सकता है-१. शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का भय होने पर, २. दुर्भिक्ष होने पर, ३. किसी के द्वारा व्यथित किये जाने पर अथवा ग्राम से निकाल दिये जाने पर, ४. बाढ़ आ जाने पर तथा ५. अनार्यों द्वारा उपद्रुत किये जाने पर।" इस प्रकार वर्षावास के विषय में जैन आचार शास्त्रों में यह विवेचन प्राप्त होता है। श्रमण के वर्षावास का समय उसी प्रकार कषायरूपी अग्नि एवं मिथ्यात्व रूपी ताप को त्याग एवं वैराग्य की शीतल धारा से तथा स्वाध्याय और १. आचारांग सूत्र २।३।१।४६५. २. कल्पसूत्र-कल्पलता पं० ३।१. तथा कल्पसमर्थनम् गाथा २६. ३. भ. आ० वि० टीका ४२१, अनगार धर्मामृत ज्ञानदीपिका ९।८०-८१ १० ४. ठाणं ५।१०० पृष्ठ ५७५. ५. वही ५।९९ पृष्ठ ५७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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