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३५० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
ध्यान की जलवृष्टि से शान्त करने का होता है जिस प्रकार जल की शीतलधारा बरसकर धरती की तपन शान्त करती है।
इस तरह व्यवहार के उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्रमणों को अपने समस्त व्यवहारों के प्रति सदा सजग रहना आवश्यक है विहित व्यवहारों का प्रयोग तथा निषिद्ध सभी व्यवहारों का त्याग श्रमण जीवन की विशेषता है । सामान्य जनजीवन के लौकिक व्यवहारों से वे सर्वथा मुक्त रहते है । क्योंकि उनका लक्ष्य व्यवहारों में उलझे रहना नहीं अपितु आत्म-कल्याण करना है । वैसे सामान्य रूप में जैनधर्म व्यवहारिक जीवन की सर्वथा उपेक्षा नहीं करता क्योंकि इसमें श्रमण एवं श्रावक दोनों के कर्तव्यों में अन्तर किया है । श्रावक आरम्भी, उद्योगी और विरोधी हिंसा से बच नहीं सकता। इसी कारण श्रमण तथा श्रावक दोनों का सम्पूर्ण जीवन उनकी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार पूर्णतः या आंशिक रूप से इसी सिद्धान्त से नियंत्रित होता है।
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