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________________ 1 ३४८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन बताये हैं । इनमें सांवत्सरिक प्रतिक्रमण (भाद्रपद शुक्ला पंचमी) से कार्तिक पूर्णमासी तक सत्तर दिनों का जघन्य वर्षावास कहा जाता है । श्रावण से कार्तिक तक― चार माह का मध्यम चातुर्मास है तथा आषाढ़ से मृगसर तक छह माह का उत्कृष्ट वर्षावास कहलाता है । इसके अन्तर्गत आषाढ़ बिताकर वहीं चातुर्मास करें और मार्गशीर्ष में भी वर्षा चालू रहने पर उसे वहीं बितायें ।' स्थानांग वृत्ति में कहा है कि प्रथम प्रावृट् ( आषाढ़ ) में और पर्युषणा कल्प के द्वारा निवास करने पर विहार न किया जाए। क्योंकि पर्युषणाकल्प पूर्वक निवास करने के बाद भाद्र शुक्ला पंचमी से कार्तिक तक साधारणतः विहार नहीं किया जा सकता किन्तु पूर्ववर्ती पचास दिनों में उपयुक्त सामग्री के कर भी सकते हैं । अभाव में विहार बृहत्कल्पभाष्य में वर्षावास समाप्त कर विहार करने के समय के विषय में कहा है कि जब ईख बाड़ों के बाहर निकलने लगें, तुम्बियों में छोटे-छोटे तुंबक लग जायें, बैल शक्तिशाली दिखने लगे, गाँवों की कीचड़ सूखने लगे, रास्तों का पानी कम हो जाए, जमीन की मिट्टी कड़ी हो जाय तथा जब वर्षावास की समाप्ति और गमन करने लगें तो श्रमण को भी का समय समझ लेना चाहिए । वर्षायोग के धारण का उपयुक्त अनुकूल योग्य प्रासुक स्थान पर में चातुर्मास योग्य स्थान के साध्वी को उस ग्राम-नगर वर्षावास के योग्य स्थान : श्रमण को समय जानकर धर्म - ध्यान और चर्या आदि के चातुर्मास व्यतीत करना चाहिए । आचारांग सूत्र विषय में कहा है कि वर्षावास करने वाले साधु या खेड, कर्वट, मडंब, पट्टण, द्रोणमुख, आकर ( खदान), निगम, आश्रय, सन्निवेश या राजधानी की स्थिति भलीभाँति जान लेनी चाहिए। जिस ग्राम-नगर यावत् राजधानी में एकान्त में स्वाध्याय करने के लिए विशाल भूमि न हो, मल-मूत्र त्याग के लिए योग्य विशाल भूमि न हो, पीठ (चौकी) फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति सुलभ न हो और न प्रासुक (निर्दोष ) एवं एषणीय आहार- पानी ही सुलभ हो, जहाँ बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी पहले से आए हुए हों और भी दूसरे आनेवाले हों, जिससे सभी मार्गों पर जनता की अत्यन्त भोड़ हो और साधु-साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कायों के लिए अपने स्थान से सुखपूर्वक निकलना और प्रवेश करना भी कठिन हो, १. ठाणं टिप्पण ५।६१-६२. पृ० ६२५. २. स्थानांगवृत्ति पृ० २९४, २९५. ३. बृहत्कल्पभाष्य भाग २, १।१५३९-४०. Jain Education International पथिक परदेश को अपने विहार करने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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