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व्यवहारः ३४७
वर्षायोग धारण के विषय में श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र में कहा है कि मासकल्प से विचरते हुए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को आषाढ़ मास की पूर्णिमा को चातुर्मास के लिए वसना कल्पता है। क्योंकि निश्चय ही वर्षाकाल मे मासकल्प विहार से विचरने वाले साधुओं और साध्वियों के द्वारा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों को विराधना होती है।' कल्पसूत्रनियुक्ति में भी कहा है कि आषाढ़ मास की पूर्णिमा तक नियत स्थान पर पहुँचकर श्रावण कृष्ण पंचमी से वर्षावास प्रारम्भ कर देना चाहिए । उपयुक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावण कृष्ण दसमी से पाँच-पाँच दिन बढ़ाते-बढ़ाते भाद्र शुक्ल पंचमी तक तो निश्चित हो वर्षावास प्रारम्भ कर देना चाहिए, फिर चाहे वृक्ष के नीचे ही क्यों न रहना पड़े। किन्तु इस तिथि का उल्लंघन नहीं होना चाहिए । वर्षावास का समय :
सामान्यतः आषाढ़ से कार्तिक पूर्वपक्ष तक का समय वर्षा और वर्षा से उत्पन्न जीव-जीवाणुओं तथा अनन्त प्रकार के तृण, घास और जन्तुओं के पूर्ण परिपाक का समय रहता है । इसीलिए चातुर्मास (वर्षावास) को अवधि आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की पूर्वरात्रि से आरम्भ होकर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की पश्चिम रात्रि तक मानी जाती है ।
वर्षावास के समय में एक सौ बीस दिन तक एक स्थान पर रहना उत्सर्ग मार्ग है। विशेष कारण होने पर अधिक और कम दिन भी ठहर सकते हैं । अर्थात् आषाढ़ शुक्ला दसमी से चातुर्मास करने वाले कार्तिक की पूर्णमासी के बाद तीस दिन तक आगे भी सकारण एक स्थान पर ठहर सकते हैं। अधिक ठहरने के प्रयोजनों में वर्षा की अधिकता, शास्त्राभ्यास, शक्ति का अभाव अथवा किसी की वैयावृत्य करना आदि हैं । आचारांग में भी कहा है कि वर्षाकाल के चार माह बीत जाने पर अवश्य विहार कर देना चाहिए, यह तो श्रमण का उत्सर्ग मार्ग है । फिर भी यदि कार्तिक मास में पुनः वर्षा हो जाए और मार्ग आवागमन के योग्य न रहे तो चातुर्मास के पश्चात् वहाँ पन्द्रह दिन और रह सकते हैं ।
समय की दृष्टि से वर्षावास के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद
१. कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा एवं विहेणं विहाररेणं विहरमाणाणं
आसाढपुण्णिमाए वासावासं वसित्तए-कल्पसूत्र : सूत्र १७ पृ० ७४ (कल्प
मंजरी टीका सहित । २. कल्पसूत्र नियुक्ति गाथा १६, कल्पसूत्र चूणि पृ० ८९. ३. भ. आ० वि० टीका ४२१. ४. वही. ५. आचारांग २।३।१।११३ १० १०६४.
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