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३४६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन यथावसर प्राप्त वसति में ही संयत रहकर वर्षावास व्यतीत करें।' बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार वर्षावास में गमन करने से षट्कायिक जीवों का घात तो होता ही है साथ ही वृक्ष की शाखा आदि सिर पर गिरने, कीचड़ में रपट जाने, नदी में बह जाने, काँटा आदि लगने के भय रहते हैं । ... श्रमण को प्रत्येक कल्पनीय कार्य करते समय अहिंसा और विवेक की दृष्टि रखना अनिवार्य है। वर्षाकाल में विहार करते रहने में अनेक बाधाओं के साथ ही जोव-हिंसा की बहुलता सदा रहती है इसीलिए वर्षाकाल के चार माह तक एक स्थान पर स्थिर रहकर वर्षायोग धारण का विधान है। इस प्रकार जैन परम्परा के साथ ही प्रायः सभी भारतीय परम्पराओं के धर्मों में साधुओं को वर्षाकाल के चार माह में एक स्थान पर स्थित रहकर धर्म-साधन करने का विधान है।
वर्षायोग ग्रहण एवं उसकी समाप्ति की विधि :-यद्यपि मूलाचार आदि प्राचीन ग्रन्थों में वर्षायोग ग्रहण आदि की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं है किन्तु उत्तरवर्ती ग्रन्थ अनगार धर्मामृत में कहा है कि आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम पहर में पूर्व आदि चारों दिशाओं में प्रदक्षिणा क्रम से लघु चैत्यभक्ति चार बार पढ़कर सिद्धभक्ति, योगिभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्ति करते हुए आचार्य आदि साधुओं को वर्षायोग ग्रहण करना चाहिए । तथा कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के पिछले पहर में इसी विधि से वर्षायोग को छोड़ना चाहिए। आगे बताया है कि वर्षायोग के सिवाय अन्य हेमन्त आदि ऋतुओं में अर्थात् ऋतबद्ध काल में श्रमणों का एक स्थान में एक मास तक रुकने का विधान है । जहाँ चातुर्मास करना अभीष्ट हो वहाँ आषाढ़ मास में वर्षायोग के स्थान पर पहुँच जाना चाहिए। तथा मार्गशीर्ष महीना बीतने पर वर्षायोग के स्थान को छोड़ देना चाहिए। कितना ही प्रयोजन होने पर भी वर्षा योग के स्थान में श्रावण कृष्णा चतुर्थों तक अवश्य पहुँच जाना चाहिए। इस तिथि का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । तथा कितना ही प्रयोजन होने पर भी । कार्तिक शुक्ला पंचमी तक वर्षा योग के स्थान से अन्य स्थान को नहीं जाना चाहिए। यदि किसी दुनिवार उपसर्ग आदि के कारण वर्षायोग के उक्त प्रयोग में अतिक्रम करना पड़े तो साधु को प्रायश्चित्त लेना चाहिए।
१. आचारांग सूत्र २।३।१११११. २. बृहत्कल्पभाष्य भाग ३ गाथा २७३६-२७३०, ३. अनगार धर्मामृत ९।६६-६७. ४. अनगार धर्मामत ९।६८-६९.
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