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________________ ३४४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन करना मासश्रमण कल्प है।' वैसे साधारणतया मुनियों को निरन्तर विहार करने का विधान है और सामान्यतः वह ग्राम में एक रात्रि तथा नगरों में पांच रात्रि से अधिक नहीं ठहर सकता किन्तु ऋतुबद्धकाल की दृष्टि से इस मासकल्प का विधान है। १०. पर्युषणा कल्प :-मूलाचार में पज्जो (पर्या) कल्प से भी इसका उल्लेख है। वर्षाकाल के चार मास के लिए भ्रमण (विहार) का त्यागकर एक ही स्थान पर रहना पर्युषणा कल्प है । मूलाचार वृत्तिकार के अनुसार पर्युपासना करना अर्थात् तीर्थंकरों के पंचकल्याणक स्थानों तथा निषद्यकाओं का सेवन करना पर्याकल्प है।४ स्थानांग वृत्ति में पज्जोपवणा के संस्कृत रूप किये गये है१. पर्यासवना-जिससे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी ऋतुबद्ध पर्यायों का परित्याग किया जाता है । २-पर्युपशमना-जिसमें कषायों का उपशमन किया जाता है। ३. पर्युषणा-जिसमें सर्वथा एक क्षेत्र में जघन्यतः सत्तरह दिन और उत्कृष्टतः छह माह ठहरा जाता है ।" इस कल्प का उद्देश्य चातुर्मास (वर्षावास) में एक ही स्थान पर निवास करना है क्योंकि वर्षा ऋतु के समय पृथ्वी स्थावर और जंगम जीवों से व्याप्त रहती है। अतः ऐसे समय विहार करने से महान् असंयम होता है। आत्म-विराधना की भी पदे-पदे सम्भावना रहती है। अतः पर्युषणा कल्प का विधान है। वर्षावास : वर्षावास मुनिचर्या का अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण योग है। इसीलिए इसे वर्षायोग अथवा चातुर्मास भी कहा जाता है । श्रमण के पूर्वोक्त दस स्थितिकल्पों में अन्तिम पर्युषणा कल्प है। जिसके अनुसार वर्षा काल के चार महीने भ्रमण का त्याग करके एक स्थान पर रहने का विधान है। वर्ष के बारह महीनों को मौसम की दृष्टि से प्रमुख तीन भागों में विभाजित किया गया है १. ग्रीष्म १. मूलाचार वृत्ति १०११८. २. मूलाचार ९।१९. ३. भ० आ० वि० टीका ४२१. ४. मूलाचार वृत्ति १०।१८. ५. स्थानांग वृत्ति १०।११५. पृ० ४८५. ६. भ० आ० वि० टीका ४२१. ७. वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमणत्यागः । -भ० आ० वि० टी० ४२१, पृ० ६१८. मूलाचारवृत्ति १०।१८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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