SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार : ३४३ से करावें । यदि सम्पदा के अभिमान के कारण ऐसा नहीं करते-कराते तो गण में कलह उत्पन्न होता है और आचार्य - उपाध्याय का अपमान भी होता है । ' ८. पडिक्कमणं (प्रतिक्रमण) कल्प :- अचेकत्वादि कल्प में रहते हुए श्रमण को जो अतिचार लगते हैं उनके निवारणार्थं प्रतिक्रमण कल्प का विधान है । दैवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमणों के द्वारा आत्मा का चिन्तन करना, संस्कार करना प्रतिक्रमण कल्प है । साधु-साध्वियों को उभयकाल प्रतिक्रमण करना कल्पता है ।* चौबीस तीर्थंकरों में से मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए प्रतिक्रमण आवश्यक नहीं । वे प्रतिक्रमण करते भी हैं और नहीं भी करते । किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य सब प्रतिक्रमण दण्डकों को पढ़ते हैं अर्थात् अतिचार नहीं लगने पर भी उन्हें प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है । ५ ९. मासं ( मासस्थिति) कल्प : - वर्षाकाल और ऋतुबद्धकाल — विहार की दृष्टि से वर्षा काल को इन दो भागों में विभक्त किया गया है | अतः वसन्त आदि छह ऋतुओं में से प्रत्येक ऋतु में एक मास पर्यन्त एक स्थान पर निवास करना और एक मास विहार करना मास अथवा मासैकतावासित्व कल्प है | वस्तुतः एक स्थान पर चिरकाल ठहरने पर नित्य ही उद्गम दोष लगता है । उसे टाला नहीं जा सकता। एक स्थान पर ही बहुत समय तक रहने से क्षेत्र प्रतिबद्धता, सुखशीलता, आलसीपना, सुकुमारता की भावना तथा ज्ञान, भिक्षा ग्रहण आदि दोष लगते हैं । मूलाचारवृत्ति में कहा है जहाँ वर्षायोग करना हो वहाँ की लोक स्थिति जानने तथा अहिंसादि महाव्रतों के परिपालनार्थ वर्षायोग धारण करने के पूर्व उस स्थान में एक मास रहना तथा वर्षायोग समाप्ति के पश्चात् भी श्रावकों के अनुग्रह, विज्ञप्ति को देखते हुए उनके संक्लेश परिणामों के परिहरणार्थ वहाँ एक मास मात्र और ठहरना अथवा प्रत्येक ऋतु में एक माह ठहरना तथा एक माह विहार करना अथवा वर्षाकाल में योग-ग्रहण तथा चार-चार महीनों में नंदीश्वर, आष्टाह्निक १. कल्पसूत्र कल्पमंजरी टीका सहित सूत्र ६१० ४१-४५. २. भ० आ० वि० टीका ४२१. ३. मूलाचार वृत्ति. १०११८. ४. कल्पसूत्र सूत्र ९. पृ० ६२. ५. भ० आ० वि० टीका ४२१. ६. वही. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy