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________________ ३४२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन सभी कल्पों को पालता है तथा जिसे सभी जीवों का स्वरूप मालूम हुआ है ऐसे मुनि को नियम से व्रत इस प्रकार देना चाहिए-गुरुजनों के स्वयं रहते हुए आचार्य स्वयं स्थित होकर सामने स्थित विरत स्त्रियों को श्रावक-श्राविका वर्ग को व्रत प्रदान करें तथा अपने वायीं ओर स्थित विरतों को व्रत प्रदान करे। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में रात्रिभोजनत्याग नामक छठे व्रत के साथ पाँच महाव्रत होते हैं। वैसे भी यह कल्प सभी तीर्थकरों के तीर्थ में होता है । ७. जेट्ठ (ज्येष्ठ) कल्प : दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जो बड़े हों उन्हें ज्येष्ठ कहते हैं तथा इनके लिए निर्मित विधि-विधान का नाम ज्येष्ठ कल्प है। मिथ्यादृष्टि, सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरत और संयतासंयत-इन गुणस्थानों के कारण श्रमण ज्येष्ठ और श्रेष्ठ अर्थात् सभी को पूज्य होते हैं । बहकाल से दीक्षित आयिका से भो आज का दीक्षित श्रमण श्रेष्ठ और ज्येष्ठ माना जाता है। पुरुष संग्रह, उपकार और रक्षण करता है। पुरुष ने जगत् में धर्म की स्थापना की है। अतः सभी आयिकायें श्रमण की विनय करती है । कल्पसूत्र की कल्पलता टीका में उद्धत गाथा के अनुसार भी शतवर्ष की दीक्षिता आयिकाओं को आज का नवदीक्षित श्रमण भी वन्दनीय और पूज्य है। इसी में कहा है 'नो कप्पइ निग्गंथाणं'-साधु को साध्वियों को वन्दना करना नहीं कल्पता । अपितु "कप्पइ निग्गथीणं" साधुओं की वन्दना करना साध्वियों को कल्पता है।" साध्वी चाहे अल्पकाल की दीक्षित हो अथवा चिरकाल की, सभी साध्वियों को साधु की वन्दना करनी चाहिए, चाहे साध चिरकाल का ही दीक्षित हो अथवा अल्पकाल का । क्योंकि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में धर्म पुरुष-प्रधान होता है । वस्तुतः इस ज्येष्ठ कल्प के विधान का उद्देश्य यह है कि श्रमणों और श्रमणियों को परस्पर में यथायोग्य वन्दना करना चाहिए । आचार्य और उपाध्याय गण में स्थित साधुओं को पर्याय-ज्येष्ठता के अनुसार स्वयं वन्दना करें और दूसरों १. भ० आ० वि० टीका ४२१. २. मूलाचारवृत्ति १०११८. ३. भ० आ० वि० टी० ४२१. ४. वरिससयदिक्खिआए अज्जाए अज्जदिक्खिओ साहू । अभिगमण वंदणनमं सणेण विणएण सो पुरुषो ।। ५. कल्पसूत्र कल्पमंजरी टीका सूत्र ६ पृ० ४१-४५. ६. सव्वाहि संजईहिं किइकम्मं संजयाण कायन्वं । पुरिसुत्तरिओ धम्मो, सम्वजिणाणं पि तित्थम्मि ॥ -कल्पसूत्र कल्पमंजरी टीका सहित पृष्ठ ४४. स्थानांग टीका ६५३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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