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________________ व्यवहार : ३४१ स्वीकार करना कृतिकर्म कल्प है' चारित्र सम्पन्न मुनि को अपने गुरु और अपने से बड़े मुनियों को विनय एवं शुश्रूषा करना चाहिए । २ ___कल्पसूत्र के अनुसार श्रमणों और श्रमणियों को कल्याण मंगल, धर्मदेव और ज्ञानस्वरूप पर्याय ज्येष्ठ को वन्दना करना, नमस्कार करना, सत्कार, सम्मान करना तथा उनकी उपासना करना कल्पता है ।' साधुओं और साध्वियों को दीक्षा पर्याय की ज्येष्ठता के अनुसार कृति कर्म (वन्दना) करना कल्प्य है । किन्तु साधुओं को साध्वियों का कृतिकर्म करना नहीं कल्पता । साध्वियों को साधुओं का कृतिकर्म करना कल्पता है। आचार्यों और उपाध्यायों को गण में पर्याय ज्येष्ठता के अनुसार कृतिकर्म करना और कराना कल्पता है । बहुसंख्यक साधुओं, गणावच्छेदकों, आचार्यों, उपाध्यायों को जो एक साथ विचरते हों उन्हें पर्याय ज्येष्ठता के अनुसार कृतिकर्म करना कल्पता है । इसी प्रकार स्थविरों, प्रवर्तकों, गणियों और गणधरों के विषय में भी समझना चाहिए। साधुओं को साधुओं के प्रति और साध्वियों को साध्वियों के प्रति दीक्षा-पर्याय की ज्येष्ठता के अनुसार कृतिकर्म करना चाहिए। क्योंकि इससे चरण-करण-क्रिया में उपयोग रखने वाले मुनि अनेक भवों से संचित अनन्त कर्मों का क्षय करते हैं। ६. वद (व्रत) कल्प : व्रत से तात्पर्य विरति अर्थात् असत् प्रवृत्ति की विरति । जानकर और स्वीकार करके पापों से विरत होना व्रत है।' अकरण, निवृत्ति, उपरम, विरति वृत्तिकरण, छादन और संवर-ये सब एकार्थक शब्द है। अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों से आत्मा को सुसंस्कृत करना अर्थात् व्रतों में निश्चल रहना, उनके साथ आत्मा को जोड़ना अर्थात् विधिपूर्वक महावतों का पालन करना व्रतकल्प है। अपराजितसूरि ने कहा है जो आचेलक्य आदि पूर्वोक्त १. कल्पसमर्थनम् गाथा १२ प० २, २. भ० अ० वि० टीका ४२१. . ३. कल्पसूत्र सूत्र ८ पृ० ६०. ४. कल्पसूत्र कल्पमंजरी टोका सहित सूत्र ६ पृ० ४१-४५. ५. वही पृ० ४८. ६, "विरतिव्रतम्-तत्त्वार्थसूत्र ७.१. ७. णाऊण अब्भुवेच्चय पावाणं विरमणं वदं होई-भ० अ० वि० टीका ४२० में उद्धृत गाथा । ८. तत्त्वार्थभाष्य ७।१. ९. भ० आ० वि० टीका ४२१. १०. मूलाचारवृत्ति १०।१८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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