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३४० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
महाऋद्धिधारी हैं उनके यहाँ आहारादि का ग्रहण राजपिण्ड है ।' राजपिण्ड का ग्रहण न करना राजपिण्डत्याग कल्प है । मूलाचारवृत्ति में कहा है कि जिस आहार से शरीर, बल और वीर्य उत्पन्न हो उस आहार का त्याग करना अथवा स्वार्थ के लिए दानशाला का आहार स्वोकार न करना राजपिण्ड त्याग है । 2 अपराजितसूरि ने राजपिण्ड ग्रहण में दो दोष बताये हैं - प्रथम आत्मसमुत्थ ( स्वयंकृत) और द्वितीय परसमुत्थ ( परकृत ) । द्वितीय के दो भेद हैं मनुष्यकृत और तिर्यञ्चकृत । राजा के घर में तिर्यञ्च जीवों का काफी संग्रह रहता है । इससे उनके घर आहारार्थं जाने पर आत्मविपत्ति आ सकती है तथा सेवक, दास-दासी, योद्धा, कोतवाल आदि के बाहुल्य से वहाँ प्रवेश कठिन होता है । तथा मत्त,, प्रमत्त और हर्ष से उत्फुल्ल दास आदि यति को देखकर हँसते हैं, चिल्लाते हैं। रोकते हैं, अवज्ञा करते हैं । वहाँ के वस्त्राभूषण आदि को दूसरे चुराकरके यह दोष लगा सकते हैं कि यहाँ साधु आये थे । राजा का श्रमणों पर विश्वास है। ऐसा जानकर कुछ ईर्ष्यालु लोग श्रमण का रूप धारणकर दुष्ट काम कर सकते हैं और श्रमणों पर दोषारोपण कर सकते हैं ।
राजकुल में आहार का शोधन नहीं होता । बिना देखा और छीना हुआ आहार ग्रहण करने से आत्मसमुत्थ दोष लगता है । सदोष आहार लेने से इंगाल दोष होता है । अन्यान्य दोष भी आते हैं अतः राजा के आहारादि ग्रहण का निषेध है । किन्तु यह भी कहा है कि कोई ऐसा कारण उपस्थित हो कि साधु का मरण बिना भोजन के होता हो और साधु के मरण से श्रुत का विच्छेद होता हो तो राजपिण्ड ले सकते हैं ताकि श्रुत का विच्छेद न हो । रसलोलुपता से बचने के लिए भी इस चतुर्थकल्प का विधान है । एषणाशुद्धि इस कल्प की आत्मा है ।
५. किविकम्मं (कृतिकर्म) : चारित्र में स्थित साधु के द्वारा गुरुओं की विनय करना अथवा स्वयं वन्दनादि कार्य में उद्योग करना कृतिकर्मकल्प है । दीक्षा, संयम और सद्गुणों में ज्येष्ठ श्रमणों के आगमन पर अभ्युत्थानपूर्वक आवर करना, उन्हें बहुमान देना, उनके हितोपदेशों को श्रद्धा एवं नम्रभाव
१. भ० आ० वि० टीका ४२१.
२. मूलाचारवृत्ति १०११८.
३. भ० आ० वि० टीका ४२१.
४. भगवती आराधना वि० टीका ४२१.
५. कृतिकर्मस्तेन वंदनादिकरणे उद्योगः - मूलाचारवृत्ति १०११८.
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