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________________ व्यवहार : ३३९ २. उद्देसिय ( औद्देशिक) त्याग - श्रमणों के उद्देश्य से बनाया गया भोजनादि औद्देशिक कहलाता है । इस विषय में निर्दिष्ट आचार औद्देशिक कल्प है । श्रमण के उद्देश्य से बनाया गया आहार, वसतिका आदि के ग्रहण का उन्हें निषेध है ।' क्योंकि औद्देशिक आहार के ग्रहण में अनेक दोष हैं। इसके ग्रहण से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होती है अतः साधु को इस प्रकार का आहार कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए । ३. सेज्जाहर ( शय्यागृह / शय्यातर) पिण्ड त्याग- - इस तृतीय कल्प से तात्पर्य है स्थानदाता से भक्तपान लेने का त्याग । जो वसतिका बनाता है, जो उसे सुसंस्कृत करता है तथा जो वसतिका न तो बनाता है और न सुसस्कृत करता है किन्तु मात्र वसति देते हुए कहता है कि यहाँ ठहरिये । ये तीनों शय्यातर कहलाते हैं । इनका पिण्ड अर्थात् भोजन, उपकरण आदि शय्यातर पिण्ड है तथा इनका पिण्ड ग्रहण न करना सेज्जाहर पिण्ड त्याग कल्प है । क्योंकि इनका पिण्ड ग्रहण करने से राग-द्वेषादि की उत्पत्ति होती है । चूंकि शय्यातर धर्मफल के लोभ से छिपाकर आहार आदि देने की योजना कर सकता है इससे औद्देशिक आहार ग्रहण का दोष आता है । अथवा जो दरिद्र या लोभो होने से पिण्ड देने में असमर्थ है वह लोक-निन्दा के भय से श्रमण को ठहरने के लिए वसतिका ही नहीं देगा । आहार और वसति देनेवाले पर यति का स्नेह भी हो सकता है कि इसने हमारा बहुत उपकार किया । किन्तु शय्यातर का पिण्ड ग्रहण न करने में ये दोष नहीं हैं। सूत्रकृतांग में इसे " सागरिय पिण्ड" भी कहा है । कल्पसूत्र टीका में कहा है कि शय्यातर के यहाँ से आहार आदि ग्रहण करना और उसका उपभोग करना साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता ।" निशीथ भाष्य में शय्यातर से तात्पर्य श्रमण को शय्या ( वसतिका) आदि देकर संसार-समुद्र को तैरने वाला गृहस्थ बतलाया है । इसके अशन, पान, खाद्य, स्वाद्यादि आहार तथा अन्य वस्तुओं को अकल्पनीय कहा है । ४. रायपिण्ड ( राजपिण्ड) त्याग : - राजा तथा राजा के सदृश जो भी १. मूलाचार वृत्ति १०।१८. २. भगवती आराधना वि० टी० ४२१, प्रश्नव्याकरण संवर द्वार ११५, सूत्रकृताङ्ग १।९।१४, उत्तरा०-२०१४७. ३. भ० अ० वि० टीका ४२१. ४. सूत्रकृतांग १।९।१६. ५. कल्पसूत्र, सूत्र ४ कल्पमंजरी टीका पृ० ३६. ६. निशीथ भाष्य गाथा १११५१-५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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