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३३८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
दस स्थिति कल्पों का विवेचन इस प्रकार है
१. अच्चेलक्क (आचेलक्य):-चेल शब्द वस्त्र का पर्यायवाची है । यहाँ चेल का ग्रहण परिग्रह का उपलक्षण है। अतः वस्त्रादि समस्त परिग्रह का त्याग आचेलक्य है।' कल्पसूत्र टीका में कहा है जिसके चेल अर्थात् वस्त्र न हो वह अचेल तथा अचेल का भाव आचेलक्य या अचेलता है । २ मूलाचार तथा भगवती आराधना में आचेलक्य, केशलुञ्चन, शरीर संस्कार एवं ममत्त्व त्याग, और प्रतिलेखन-ये चार प्रकार के लिंगकल्प (लिंग भेद) औत्सगिक लिंग में माने गये हैं । आचेलक्य कल्प के कारण ही साधु निर्ग्रन्थ कहा जाता है । तथा इसी कल्प से दस धर्मों का पालन सुगमता से होता है।
चेल का उपलक्षण परिग्रह है जिसके निमित्त से क्रोध होता है और इसके अभाव में उत्तम क्षमा धर्म का पालन किया जा सकता है। इसी प्रकार से मार्दव आदि धर्मों का पालन होता है। श्रमणों के लिए अचेलकत्व गुण मोक्ष-यात्रा के साधनभूत रत्नत्रय और गुणीपने का चिह्न है। इससे श्रावकों को दानादि में प्रवृत्ति भी होती है। आत्म-स्थिरता गुण उत्पन्न होता है। साथ ही गृहस्थों से भिन्नता दिखती है । परिग्रह का लाघव अप्रतिलेखन, गतभयत्व, सम्मूर्छन जीवों का बचाव और परिकर्म अर्थात् कार्यों का त्याग-ये सब गुण आचेलक्य कल्प में हैं।" स्थानांग सूत्र में पांच स्थानों पर आचेलक्य को प्रशस्त बताया है--१. अचेलक के प्रतिलेखना अल्प होती है। २. उसका लाघव प्रशस्त होता है । ३. उसका रूप (वेष) वैश्वासिक-विश्वास के योग्य होता है ४. उसका तप अनुज्ञात अर्थात् जिनानुमत होता है। तथा ५. उसके विपुल इन्द्रिय निग्रह होता है । इस प्रकार श्रमण जीवन में आचेलक्य स्थितिकल्प का प्रमुख स्थान है ।
१. (क) अचेलकत्त्वे वस्त्राद्यभावः-मूलाचार वृत्ति १०।१८. (ख) चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं तेन सकलपरिग्रह त्यागः आचेलक्यमित्युच्यते
-भगवती आराधना वि० टीका ४२१. २. न विद्यते चेलं-वस्त्रं यस्यासी अचेलकः तस्य भावः आचेलक्यम् ।
-कल्पसूत्र टीका पृष्ठ २२. ३. अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । एसो हु लिंगकप्पो चतुविधो होदि उस्सग्गे ॥ भ० आ० ७९.
-मूलाचार १०११७. ४. भ० आ० वि० टीका ८२. ५. वही ८२-८३. ६. स्थानांग ५।३.
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