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व्यवहार : ३३७ हैं । भगवती आराधना में इन दस स्थिति कल्पों को आचार्य के आचारवत्व गुण के वर्णन प्रसंग में इनका उल्लेख करते हुए कहा है कि जो इन दस स्थितिकल्पों में सम्यक् स्थित है वह आचारवान् है ।" अनगार धर्मामृत में आचार्य के छत्तीस गुणों ( आचारवान् आदि आठ, बारह तप, दस स्थितिकल्प तथा छह आवश्यक) र के अन्तर्गत इन कल्पों की गणना की गई है । जबकि मूलाचार और श्वेताम्बर परम्परा में सर्वसाधारण श्रमणों के लिए इन कल्पों का उल्लेख है ।
उपर्युक्त दस स्थितिकल्पों को स्थित और अस्थित — इन दो भेदों में भी विभाजित किया गया है । यद्यपि दिगम्बर परम्परा के प्रायः प्रमुख ग्रन्थों में इन दो भेदों का उल्लेख नहीं मिलता । शय्यातर पिंड, व्रत, ज्येष्ठ, और कृतिकर्म -- ये चार कल्प 'स्थित' तथा आचेलक्य, औद्देशिक, प्रतिक्रमण, राजपिंड, मास और पर्युषणा — ये छह कल्प 'अस्थित' कल्प के अन्तर्गत हैं ।" भगवती सूत्र में कल्प
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सामान्य के ही स्थित और अस्थित- ये दो भेद माने गये हैं । "
सभी तीर्थंकरों के समय में सभी साधु अनिवार्य रूप से 'स्थित' कल्पों का पालन करते हैं तथा शेष छह 'अस्थित' कल्पों का पालन प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों को छोड़कर शेष मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधु तथा विदेह के साधु इन्हें पालते भी हैं और नहीं भी पालते हैं । इसीलिए ये 'अस्थित' कल्प कहे जाते हैं । भगवान् पाव के समय में सामायिक संयम की व्यवस्था थी किन्तु भ० महावीर ने उसके स्थान पर छेदोपस्थापनीय संयम की व्यवस्था की । इस दृष्टि से भ० पार्श्व के समय पूर्वोक्त चार कल्प अनिवार्य तथा शेष छह कल्प ऐच्छिक होते हैं । यह सामायिक संयम की मर्यादा है । भ० महावीर ने उक्त दस कल्पों को श्रमण के लिए अनिवार्य बना दिया । फलतः छेदोपस्थापनीय संयम की मर्यादा में से दसों कल्प अनिवार्य हो गये ।
१. दसविह ठिदिकप्पे वा हवेज्ज जो सुट्टिदो सथायरिओ - भ० आ० ४२०. २. अनगार धर्मामृत ९।७६.
३. ( क ) मूलाचार १०।१८.
(ख) आवश्यक निर्युक्ति मलयगिरि वृत्ति - १२१, बृहत्कल्पभाष्य ६३-६४, पञ्चाशक विवरण १७.
४. पञ्चाशक प्रकरण १७।७-९.
५. भगवती २५।६।२९९:
देखें - अनगार धर्मामृत पृ० ६८५ का विशेषार्थ (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ११९७०)
७. ठाणंः टिप्पण ६।३९ पृ० ७०२.
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