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३३६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
श्वेताम्बर परम्परा में कहा है कि जो संघ में रहकर साधना करते हैं, उनकी आचार-मर्यादा को स्थविरकल्प स्थिति कहा जाता है । सत्रह प्रकार के संयम का पालन, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की परम्परा का विच्छेद न होने देना, इसके लिए शिष्यों को ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निपुण करना तथा वृद्धावस्था में जंघाबल क्षीण होने पर स्थिरवास करना-ये सब स्थविरकल्प के मुख्य अंग हैं। जिनकल्प स्थिति से तात्पर्य यह कि जो विशेष साधना के लिए संघ से अलग होकर रहते हैं उनकी आचार-मर्यादा को जिनकल्पस्थिति कहा जाता है। ये अकेले रहते हैं, शारीरिक शक्ति, मानसिक दृढ़ता से सम्पन्न, धृतिमान और अच्छे संहनन से युक्त होते हैं । वे सभी प्रकार के उपसर्ग सहने में समर्थ तथा परिषहों का सामना करने में निडर रहते हैं। कल्पसूत्र टीका में कहा है काल की दृष्टि से इस पांचवें आरे (पंचम काल) में जिनकल्प विच्छिन्न है।३।
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही जैन परम्पराओं में श्रमण के निम्नलिखित दस स्थितिकल्पों का विवेचन प्राप्त होता है
___अच्चेलकुद्देसिय सेज्जाहररायपिंड किदियम्मं ।
वद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पज्जो समण' कप्पो' । आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातर (शय्याधर, शय्यागृह) पिंड त्याग, राजपिंड त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास तथा पर्या (पर्युषण)-ये दस कल्प
पंचमहव्ययधरणं ठिदिभोयण एयपत्त करपत्तो। भत्तिभरेण य दत्तं काले य अजायणे भिक्खं ॥ ...."संहणणं अइणिच्चं कालो सो दुस्समो मणो चवलो । तह विहु धीरा पुरिसा महन्वयभरधरण उच्छरिया ।
-भावसंग्रह गाथा १२४-१३१. १. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ६४८५. २. वही गाथा ६४८४; वृत्ति सहित । ३. कल्पसूत्र (आ० घासीलाल जी महाराजकृत टीका १) पृष्ठ ९-१०. ४. (क) आचेलक्कं उद्देसियं सिज्जायरपिंडे रायपिंडे किइकम्मे महव्वए पज्जायजेट्टे,
पडिक्कमणे मासनिवासे पज्जोसवणा-कल्पसूत्र सूत्र १ पृ० ८. (ख) आचेलक्कुद्देसिय सिज्जायर-रायपिंड-किइकम्मे ।
वय-जे?-पडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पे । आवश्यक नियुक्ति १२१. ५. मूलाचार की हस्तलिखित कारंजा वाली प्रति तथा भ० आ० ४२१ में
"पज्जोसवणकप्पो" पाठ है। ६. मूलाचार १०११८. भ० आ० ४२१.
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