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व्यवहार : ३३५ दो भेद भी किये गये है-जिनकल्प और स्थविर कल्प । शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन प्रन्थों में कल्प के इन भेदों का उल्लेख कम मिलता है किन्तु अर्धमागधी प्राकृत के ग्रन्थों में इन भेदों का विस्तृत विवेचन मिलता है । दिगम्बर परम्परा के देवसेन विरचित भावसंग्रह में इन भेदों का विवेचन इस प्रकार है
१. जिनकल्प-जो उत्तम संहननधारी हैं, पैर में काँटा लग जाने अथवा आँखों में धूल आदि गिर जाने पर स्वयं नहीं निकालते किन्तु कोई निकालता है तो मौन रहते हैं। वर्षा में गमन रुक जाने से छह मास तक निराहार पूर्वक कायोत्सर्ग में स्थित हो जाते हैं । ग्यारह अंगधारी ये धर्मध्यान और शुक्लध्यान में तत्पर रहते हैं । सम्पूर्ण कषायों के त्यागी, मौनव्रती और गुफाओं में ठहरने वाले होते हैं। जो बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रह और स्नेह रहित होते हैं-ऐसे वाग्गुप्त एवं निस्पृही यतिपति विचरण करते हुए “जिन" के समान होने से जिनकल्प में स्थित कहलाते हैं।'
२. स्थविर कल्प-भावसंग्रह में कहा है-अनगार मुनियों का स्थविरकल्प भी भगवान् जिनेन्द्रदेव ने प्रतिपादित किया है। जो पाँच प्रकार के चेल अर्थात् वस्त्र का त्याग करता है, अकिंचनवृत्ति, प्रतिलेखन-पिच्छिका ग्रहण, पंचमहाव्रत धारण, स्थित भोजन, एकभक्त, श्रावक द्वारा दिया गया भोजन करपात्र में ग्रहण करना, अयाचकवृत्ति, बारह तपों में सदा उद्युक्त, षडावश्यकों का सदा पालन, क्षितिशियन, केशलोंच, जिनवर की मुद्रा धारण, संहनन की अपेक्षा से इस दुषमा काल में पुर, नगर, ग्राम में निवास-इन सब चर्याओं को करने वाले स्थविर कल्प स्थित साधु कहे जाते हैं। जिससे चर्या (चारित्र) का भंग न हो ऐसे ही उपकरण ग्रहण करते हैं । साधु समुदाय अर्थात् संघ सहित विहार करते तथा अपनी शक्ति के अनुसार धर्म-प्रभावना करते हुए भव्य जीवों को धर्मोपदेश एवं शिष्यों का ग्रहण और पालन करते हैं। आगे बताया है कि इस दुःषम काल में शरीर संहनन और गुणों की क्षीणता के कारण मुनि नगर, पुर, और ग्राम में रहने लगे हैं फिर भी तप की प्रभावना करते हुए ये धीर-वीर पुरुष महावत के भार को धारण करने में उत्साही हैं ।२ १. विहो जिणेहिं कहिओ जिणकप्पो तह य थविरकप्पो य ।
जो जिणकप्पो उतो उत्तमसंहणणधारिस्स ॥ जस्थ य कंटयभग्गो पाए गयणम्मि रयपविट्टम्मि । फेडंति सयं मुणिणो परावहारे य तुहिक्का ॥ ....... जिण इव विहरन्ति सया ते जिणकप्पे ठिया सवणा ॥
-भावसंग्रह गाथा ११९-१२३. २. थविरकप्पो वि कहिओ अणयाराणं जिणेण सो एसो ।
पंचच्चेलच्चाओ अकिंचणत्तं च पडिलिहणं ॥
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