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३३४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
गमन से कितना परिश्रम हुआ है ? शरीर में ज्वरादि पीड़ा तो नहीं है ? उपवास से कण्ठ शुष्क तो नहीं है ? इत्यादि बातों का विचार करके उसके उपचार स्वरूप श्रावक को दान देना चाहिए । हित-मित, प्रासुक अन्न-पान, निर्दोष हितकारी औषधि, निराकुल स्थान, शयनोपकरण आदि दान योग्य वस्तुएँ हैं।'
श्रमण को आहारार्थ श्रावक के घर जाकर बैठना ठीक नहीं है। ऐसा व्यवहार भी नहीं करना चाहिए कि आहार में दोष उत्पन्न हों। श्रावक को मंजन, मंडन, क्रीडन आदि का उपदेश देकर, परदेश का समाचार कहकर, मसा, तिल आदि अष्टांगनिमित्त बताकर, अपनी जाति, कुल, तपश्चर्यादि बताकर, अनुकूल वचन कहकर, औषधि बताकर, क्रोध, मान, माया, और लोभ से, दाता की पूर्व प्रशंसा एवं पश्चात् स्तुति करके, आकाशगामिनी-विद्या, सर्प-विच्छू आदि के मंत्र सिखाकर, शरीर शुद्धि हेतु चूर्ण आदि बताकर और किसी को वश में करने की युक्ति बताकर आहार ग्रहण करने से या भिक्षा प्राप्त करने से आहार के उत्पादन दोषों का उस श्रमण को भागी बनना पड़ता है ।। श्रमण के दस स्थितिकल्प :
शास्त्रसम्मत साधु समाचार को कल्प (कप्प) कहते हैं तथा उस कल्प में स्थिति को स्थितिकल्प कहते हैं। साधु का आचार, विचार, मर्यादा, नीति, सामाचारी तथा इनके नियम, विधि-ये कल्प शब्द के पर्यायवाची शब्द है । इस प्रकार संयममार्ग में प्रवृत्ति करने वाले जिससे समर्थ बनते हैं उसे कल्प कहते है। सामर्थ्य, वर्णना, काल, छेदन, करण, औपम्य और अधिवास-इन अर्थों में भी कल्प शब्द प्रयुक्त होता है ।" वसुनन्दि ने कल्प शब्द का "विकल्प" अर्थ किया है। वैदिक परम्परा में आचार के नियमों के लिए कल्प शब्द का प्रयोग किया गया है। जैन परम्परा में साधु के आचार को कल्प कहते हैं।
कल्प के अनेक प्रकार से भेद-प्रभेदों का विवेचन किया गया है । कल्प के
१. रयणसार-२३-२४. २. भगवती आराधना वि० टी० ६०९, पृ० ८०७. ३. मूलाचार ६।२८-४१. ४. कल्पन्ते-समर्था भवन्ति संयमाध्वनि प्रवर्तमाना अनेनेति कल्पः--कल्पसूत्र
कल्पलता टीका (आ० घासीलालकृत) का मंगलाचरण पृष्ठ ६-७. ५. सामत्थे वण्णणा काले छेयणे करणे तहा।
ओवम्मे अहिवासे य कप्पसद्दो वियाहिओ ॥ पञ्चकल्प महाभाष्य १५४. ६. कल्पो विकल्पः-मूलाचार टीका १०।१८ १० १०५.
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