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व्यवहार : ३३३
श्रम पद के योग्य है और न श्रावक पद के योग्य है । १ तथा जो श्रमण जहाँ चाहे या जिस किसी स्थान पर उपलब्ध आहार, उपधि आदि ग्रहण कर लेता है। वह श्रमण के गुणों से रहित संसार को बढ़ाने वाला है । अतः श्रमण को अपने धर्म के अनुरूप ही आहार आदि सम्बन्धी प्रवृत्ति करना चाहिए। ताकि श्रमण धर्म और श्रावक - धर्म - दोनों की सार्थकता और महत्ता बनी रहे ।
श्रमण का शरीर अस्वस्थ हो जाय तो श्रावक औषध, पथ्य, भोजन और जल द्वारा मर्यादा के अनुसार श्रमण के शरीर को व्रतपरिपालन के योग्य स्वस्थ करने का प्रयत्न करता है । इसलिए कहा जाता है कि श्रमणों का धर्म उत्तम श्रावक के निमित्त से ही चलता है । मनुस्मृति में कहा है - जिस प्रकार वायु के सहारे सब जीव जीवित रहते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ के सहारे अन्य आश्रम रहते हैं । भिक्षा में जो अन्न दिया जाता है यदि वह आहार लेने वाले श्रमण के तपश्चरण और स्वाध्याय आदि को बढ़ाने वाला होता है तो वह द्रव्य की विशेषता कहलाती है ।" आहारदान से तीन दान सिद्ध होते हैं - आहारदान, ज्ञानदान और अभयदान । क्योंकि प्राणियों को भूख, प्यास रूप व्याधि प्रतिदिन होती है, किन्तु आहार के बल से ही श्रमण रात-दिन शास्त्र का अभ्यास करता है और प्राणों की भी रक्षा। अतः प्रासुक अन्न तथा उपधि — इन दोनों को जो ( गृहस्थ ) आत्मशुद्धिपूर्वक देता है, तथा जो ग्रहण करता है उन दोनों को महान् फल प्राप्त होता है । "
श्रावक को श्रमण के लिए दान देने की नौ विधियां हैं-श्रमण को ठहराना,
उच्च आसन पर बैठाना, पैर धोना, पाँच तथा मन, वचन, काय और वायु, श्लेष्म इन प्रकृतियों में उसकी कौन सी प्रकृति
पूजा स्तुति करना आहार की शुद्धता
१. मूलाचार १०।३६, ३५, ४१.
२. मूलाचार १०४०.
३. पद्मनन्दि पंचविंशतिका ७।९-१०.
और प्रणाम करना - ये
ये
चार । " शीत, उष्ण,
? कायोत्सर्ग या गमना
४. यथा वायुं समाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः ।
तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते इतराश्रमः । मनुस्मृति ३.७७.
५. चारित्रसार २८.
६. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३६३-३६४.
७.
फासुगदाणं फासुगउवधि तह दो वि अत्तसोधिए ।
जो दि जो य हिदि दोण्हं पि महत्फलं होइ || मूलाचार १०/४५. ८. वसुनन्दि श्रावकाचार २२५.
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