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व्यवहार : ३३१
निर्देश है। स्वजनों से इसलिए बोले कि मेरे वचन सुनकर सम्यग्दर्शन आदि को ग्रहण करेंगे। यदि ऐसी सम्भावना हो तब धर्म का उपदेश दे, नहीं तो मौन ही रहे ।' रयणसार में कहा है लौकिक जनों की संगति से अत्यन्त वाचालता की प्रवृत्ति होती है तथा वह कुटिल और दुर्भावनायुक्त हो जाता है। इसलिए मन-वचन-काय से देखभाल कर लौकिक जनों की संगति छोड़ देना चाहिए । विरत मुनि को गृहस्थ को वंदना न करने का विधान है किन्तु ज्येष्ठ और लघु मुनियों तथा आयिकाओं की तरह मुनि को योग्य गृहस्थों को भी अप्रमत्त भाव से यथायोग्य वाचिक और मानसिक विनय करने का उल्लेख है। अतः अपने को श्रेष्ठ समझ छोटे-बड़े. स्त्री-पुरुष, आदि गृहस्थों का कभी तिरस्कार भी नहीं करना चाहिए।
तरुण श्रमण को युवा स्त्री के साथ कथा व हास्यादि मिश्रित वार्तालाप का कड़ा निषेध किया है । इसका उल्लंघन करने पर आज्ञाकोप, अनवस्था (मूल ही का विनाश), मिथ्यात्व-आराधन, आत्मनाश और संयम विराधना-इन पाँच दोषों का भागी होना पड़ता है। जो श्रमण महिला वर्ग तथा गृहस्थों एवं शिष्यों से राग करता है तथा निर्दोष प्राणियों को दोष लगाता है स्वयं दर्शन एवं ज्ञान से रहित है, उसे तिर्यञ्च योनि का पशु कहा गया है। श्रमण को केवल स्वाध्यायभावना में आसक्त होकर, परोपदेश देकर, स्व-पर समुद्धार, जिनाज्ञा का पालन, वात्सल्य, प्रभावना, जिन वचनों में भक्ति तथा तीर्थ की अव्युच्छित्ति जैसे शुभ कार्यों एवं गुणों में प्रवृत्त रहना चाहिए और जहाँ तक इन गुणों में दूषण की सम्भावना न हो वहीं तक श्रावकों के साथ उनका सम्बन्ध रहना चाहिए।
वस्तुतः मुनि, आयिका तथा श्रावक, श्राविका रूप संघ में श्रमण और श्रावक दोनों एक दूसरे के पूरक है। दोनों ही जैन धर्म के प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं। अतः श्रावक के साथ मुनि का सम्पर्क आहार चर्या, वैयावृत्त्य, धर्मोपदेश आदि के समय होना स्वाभाविक है किन्तु यह सम्पर्क 'लक्ष्य की एकता' के कारण है । १. भ० आ० १७४. विजयोदया टीका सहित । २. रयणसार ४२. ३. मूलाचार ५।१८७. ४. दशवैकालिक ८।२१।५२. ५. मूलाचार ४।१७९. ६. लिंग पाहुड १७-१८. ७. भगवती आराधना १११.
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