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३३० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
क्योंकि अपनी और दूसरे की साक्षीपूर्वक विशुद्धि उत्कृष्ट मानी जाती है। ऐसा न करने से सब केवल अपनी ही साक्षा पूर्वक शुद्धि करने लगेंगे और ऐसा करने पर वे शुद्ध नहीं हो सकेंगे। लोग प्रायः देखा-देखी करने वाले होते हैं। आचार्य आदि की साक्षी पूर्वक शुद्धि में माया-शल्य दूर होता है। मान कषाय जड़ से उखड़ जाती है। गुरुजन के प्रति आदर भाव व्यक्त होता है । उनके अधीन रहकर व्रताचरण करने से मोक्षमार्ग की ख्याति होती है ।२ श्रमण और गृहस्थ तथा उनके परस्पर सम्बन्ध
श्रमण जीवन लौकिक व्यवहारों से परे होता है किन्तु उनकी भिक्षाचर्या, वैयावृत्त्य आदि कार्य बिना गृहस्थों के नहीं सपते । अतः श्रमणों को गृहस्थों के साथ अपनी मर्यादाओं के अन्तर्गत सम्पर्क आवश्यक होता है । वट्टकेर ने सामायिक आवश्यक के प्रसंग में कहा है कि गृहस्थधर्म अपरम (जघन्य) है क्योंकि आरम्भ (हिंसा) आदि प्रवृत्तियों की प्रमुखता होने से यह संसार का कारणभूत है।' दशवकालिक में कहा है कि गृहस्थ से परिचय या संसर्ग नहीं करना चाहिए।४ क्योंकि स्नेह आदि दोषों की संभावना को ध्यान में रखकर गृहस्थ के साथ परिचय करने का निषेध किया है और कुशल-पक्ष की वृद्धि के लिए साधुओं के साथ संसर्ग रखने का उपदेश किया है।"
असंयत जन, माता-पिता, असंयत गुरु, राजा, अन्य तीर्थ या देशविरत श्रावक, यक्षादि देव तथा पावस्थादि पाँच प्रकार के पाप श्रमणों की विरत मुनि को वन्दना नहीं करने का विधान है। दशवकालिक के अनुसार साधु गृहस्थ की वैयावृत्त्य न करे । अभिनन्दन, वंदन और पूजन न करे। मुनि संक्लेशरहित साधुओं के साथ रहे जिससे कि चरित्र की हानि न हो। भगवती आराधना में श्रमण को मिथ्यादृष्टि जनों के साथ मौन रहने तथा शान्त परिणामी मिथ्यादृष्टि जनों या स्वजनों के साथ अल्प-भाषण करने अथवा न बोलने का १. एवं जाणंतेण वि प्रायच्छित्तविधिमप्पणो सव्वं ।
कादम्वादपरविसोधणाए परसक्खिगा सोधी । म० आ० ५३१. २. वही, विजयोदया टीका ५३१, ५३६. ३. गिहत्थवम्मोऽपरमत्ति णिच्चा कुज्जा वुधो अप्पहियं पसत्थं । मूलाचार ७॥१३. ४. गिहिसंथवं न कुज्जा-दशवै० ८१५२. ५. दशव० हारिभद्रीय टीका पत्र २३७. ६. णो वंदिज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु गरिंद अण्णतित्थं व ।
देसविरद देवं वा विरदो पासत्थपणगं वा ॥ मूलाचार ७।९५. ७. दशवकालिक द्वितीय चूलिका गाथा ९.
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