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व्यवहार : ३२९ ३. आज्ञा व्यवहार-कोई आचार्य भक्त प्रत्याख्यान अनशन में व्याप्त है । वे जीवनगत दोषों को शुद्धि हेतु अन्तिम आलोचना के आकांक्षी है । वे सोचते हैं-आलोचना देने वाले आचार्य दूरस्थ हैं। मैं अशक्त हूँ, अतः उनके पास नहीं जा सकता और वे यहाँ आने में असमर्थ है। ऐसी स्थिति से आज्ञा व्यवहार का प्रयोग करके योग्य शिष्य के माध्यम से, दूरस्थ आचार्य से प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं।'
४. धारणा व्यवहार-किसी गीतार्थ आचार्य ने किसी समय किसी शिष्य के अपराध की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त किया हो, उसे याद रखकर, वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त विधि का उपयोग करना धारणा व्यवहार कहलाता है । उद्घारणा (छेद सूत्रों से उद्धृत अर्थपदों को निपुणता से जानना), विधारणा (विशिष्ट अर्थपदों को स्मृति में धारण करना), संधारणा (धारण किये हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना), और संप्रधारणा (पूर्ण रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना)-ये धारणा के ही पर्यायवाची शब्द हैं ।
५. जीत व्यवहार-किसी आचार्य के गच्छ में किसी कारणवश कोई सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त प्रवर्तित हुआ और वह बहुतों द्वारा अनेक बार अनुवर्तित हुआ हो तो उस प्रायश्चित्त-विधि को 'जीत' कहा जाता है। सामान्यतः किसी अपराध के लिए आचार्यों ने एक प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया। दूसरे समय में देश, काल, धृति, संहनन, बल आदि देखकर उसी अपराध के लिए जो दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया जाता है, उसे जीत व्यवहार कहते हैं।" इसका मूल आधार आगमादि न होकर केवल परम्परा ही होती है अतः जिस जीत व्यवहार से चारित्र को शुद्धि होती हो उसी का आचरण करना चाहिए ।
इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा के आगमों और उनकी व्याख्याओं में व्यवहार के उपर्युक्त पांच भेदों का विवेचन किया गया है।
भगवती आराधना में कहा है कि-सम्पूर्ण प्रायश्चित्त विधि को जानते हुए मुनि को अपनी उत्कृष्ट विशुद्धि के लिए पर की साक्षीपूर्वक शुद्धि करना चाहिए।
१. व्यवहार भाष्य उद्देश्यक १०, गाथा ६१०-६१५, ६२७, ६२८, ६६०
६६१, ६७३. २. स्थानांग वृत्ति पत्र ३०२. ३. व्यवहारभाष्य उद्देश्यक १० गाथा ६७५-६७८. ४. स्थानांग वृत्ति पत्र संख्या ३०२. ५. ठाणं ५।१२४ की टिप्पण ८६, पृ० ६३३ः
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