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३२८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
२. चौदह पूर्वों में प्रतिपादित प्रायश्चित्त को श्रुत कहते हैं ।"
३. आज्ञा - जैसे कोई आचार्य समाधि लेना चाहते हैं किन्तु पैरों में चलने की शक्ति नहीं है तब वे देशान्तर में स्थित प्रायश्चित्त के ज्ञाता किसी अन्य आचार्य के पास अपने तुल्य ज्येष्ठ शिष्य को भेजकर और उसके मुख से अपने दोषों की आलोचना कराकर उनके द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त को यदि स्वीकार करते हैं तो यह आज्ञा व्यवहार है ।
४. धारणा - वही अशक्त आचार्य दोष लगने पर वहीं रहते हुए पूर्व निश्चित प्रायश्चित्त यदि करते हैं तो वह धारणा व्यवहार है ।
५. जीत - बहत्तर पुरुषों के स्वरूप को लेकर वर्तमान आचार्यों मे जो शास्त्र में कहा है कि वह जीत व्यवहार है ।"
उपर्युक्त पाँच प्रकार के प्रायश्चित्त में से यदि आगम विद्यमान है तो आगम के अनुसार ही प्रायश्चित्त देना चाहिए । आगम न हो तो श्रुत के अनुसार प्रायश्चित्त देना चाहिए । इस प्रकार क्रमिक प्रायश्चित्त देने का विधान है ।
श्वेताम्बर परम्परा के अनेक आगमों में उपर्युक्त पाँच व्यवहार का विवेचन विस्तृत रूप में उपलब्ध होता है । वस्तुतः व्यवहार संचालन में आगमपुरुष का प्रथम स्थान है । उसकी अनुपस्थिति में श्रुतपुरुष व्यवहार का प्रवर्तन करता है । उसकी अनुपस्थिति में आज्ञापुरुष, उसकी अनुपस्थिति में धारणापुरुष और धारणापुरुष की अनुपस्थिति में जीत पुरुष व्यवहार का प्रवर्तन करता है ।
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१. आगम व्यवहार - व्यवहारभाष्य के अनुसार जो छत्तीस गुणों में कुशल, आचार आदि आलोचनाहं आठ गुणों से युक्त, अठारह वर्णनीय स्थानों का ज्ञाता, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों को जानने वाला, आलोचना के दस दोषों का विज्ञाता, व्रत षट्क और काय षट्क को जानने वाला तथा जो जातिसम्पन्न आदि दस गुणों से युक्त है— वह आगम व्यवहारी होता है ।
२. श्रुत व्यवहार — जो वृहत्कल्प और व्यवहार को बहुत पढ़ चुका है और उनको सूत्र तथा अर्थ को दृष्टि से निपुणता से जानता है, वह श्रुत व्यव - हारी कहलाता हैं ।
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१. भ० आ० की मूलाराधना टीका ४५१.
२ . वही, ४५१ तथा अनगार धर्मामृत ज्ञानदीपिका टीका ९१७८-७९ पृ० ६८३. ३. पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा - आगमे, सुते, आणा, धारणा, जीते । - स्थानांग ५।१२४. जीतकल्प भाष्य ७-१०९.
४. व्यवहार भाष्य गाथा ३२८-३३४.
५. वही गाथा ६०५-६०७,
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