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________________ व्यवहार : ३२५ कहा गया है। जबकि बौद्ध परम्परा में चिकित्सा के निमित्त सावद्य-निरवद्य तथा भक्ष्य-अभक्ष्य आदि कुछ भी खाने पीने का उल्लेख मिलता है। रात्रि मौन :-दिगम्बर परम्परा के मुनियों के आचार में वर्तमान काल में देखा जाता है कि ये मुनि नियमतः रात्रि में मौन धारण कर लेते हैं । यद्यपि मूलाचार अथवा इसके समकक्ष अन्य प्राचीन ग्रन्थों में इस तरह का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता और वर्तमान समय में श्वेताम्बर परम्परा के साधुओं में भी रात्रि मौन का प्रचलन प्रायः देखने में नहीं आता। किन्तु यह सत्य है कि संसार से विरक्त मुनि को रात्रि में मौन धारण से महाव्रत, षडावश्यक, तप, संयम और त्रिगुप्ति आदि के निर्विघ्न पालन में बहुत बल मिलता है। मुनि अल्प निद्रा ही करते हैं किन्तु उनकी इस नींद को योग-निद्रा कहा जाता है और जब साधु प्रतिमायोग आदि धारण करते हैं तो 'मौन' स्वतः हो जाता है। अतः रात्रि में मौन धारण करना साधुत्व की दृष्टि से सर्वथा योग्य है । प्रायश्चित्त सम्बन्धी व्यवहार : जैन आचारशास्त्र में प्रायश्चित्त को 'व्यवहार' शब्द से अभिहित किया जाता है । प्रायश्चित्त के व्यवहार से चारित्र शुद्धि होती है। आचार्य के गुणों में एक व्यवहार पटु गुण भी है । व्यवहार पटु से तात्पर्य है जो प्रायश्चित्त का ज्ञाता हो, जिसने बहुत बार प्रायश्चित्त देते हुए देखा हो और स्वयं भी उसका प्रयोग किया हो उसे व्यवहारी कहते हैं । प्रायश्चित्त के लिए प्राकृत भाषा में पायच्छित्त और पच्छित्त-ये दोनों शब्द प्राप्त है । प्रायश्चित्त में प्राय का अर्थ है "लोक" तथा चित्त उसके मन को कहते हैं उस चित्त के ग्राहक अथवा उस चित्त को शुद्ध करने वाला कर्म प्रायश्चित्त कहलाता है। जो पाप का छेद (विनाश) करता है वह पायच्छित्त है। एवं प्रायः जिससे चित्त शुद्ध होता है वह 'पच्छित्त' है ।५ अकलंकदेव ने 'प्रायश्चित्त' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ करते हुए कहा है प्रायः साधुलोकः, प्रायस्य यस्मिन्कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् । अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धिः प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तम्, अपराध .१ स्थानांग ९.२७. २. महावग्ग ६.१.२-१० पृ० २१६-२१८. ३. अनगारधर्मामृत ९७८ ज्ञानदीपिका टीका । ४. (क) भ० आ० ५३१. (ख) प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतं ॥ वही, विजयोदयाटीका ५३१. ५. जीतकल्पभाज्य गाथा १-५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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