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३२४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन और रोगों को धैर्यपूर्वक सहना चाहिए। क्योंकि कहा भी है कि काल, क्षेत्र, मात्रा, द्रव्य का भारीपना और हल्कापना तथा अपनी शक्ति को जानकर जो भोजन करता है, उसे औषधि से प्रयोजन ही क्या ? अर्थात् उसे कभी औषधि लेने की आवश्यकता ही नहीं। श्रमण के लिए तो जिनेन्द्रदेव के वचन हो रोगों को दूर करने के लिए औषधि, विषय सुखों के लिए विरेचन का कार्य करने वाले अमृत तुल्य हैं तथा जरा, मरण, व्याधि, वेदना आदि सभी दुःखों का क्षय करने वाले होते हैं । 3 अतः जिनेन्द्रदेव के वचनों में दृढ़ श्रद्धान रखने वाले श्रमण सम्यक् चारित्र का पालन करते हुए मृत्यु काल उपस्थित होने पर भी जिन वचनों का उल्लंघन करके कोई भी अयोग्य क्रिया करने की इच्छा तक नहीं करते।
उत्तराध्ययन में भी कहा है कि रोग उत्पन्न होने पर वेदना से पीड़ित साधु दीनता रहित होकर अपनी बुद्धि को स्थिर करे और उत्पन्न रोग को समभाव से सहन करे । आत्मशोधक मुनि चिकित्सा का अभिनन्दन न करे । चिकित्सा न करना और न कराना-यही निश्चय से उसका श्रामण्य है। तथा जो मन्त्र, मूल (जड़ी-बूटी) और विविध वैद्यचिन्ता (वैद्यक उपचार) नहीं करता वह भिक्षु है ।५ प्रश्न व्याकरण सूत्र में साधु को पुष्प, फल, कन्दमूल तथा सब प्रकार के बीज औषध, भैषज्य, भोजन आदि के लिए अग्राह्य बतलाये हैं। क्योंकि ये जीवों की योनियाँ हैं । उनका उच्छेद करना साधु के लिए अकल्पनीय है।
आहार के सोलह उत्पादन दोषों में चिकित्सा भी एक दोष है। जिसका अर्थ-औषधि आदि बताकर आहार प्राप्त करना है। श्रमण के लिए इसके द्वारा
आहार की गवेषणा करना निषिद्ध है।" भिक्षु चिकित्सा, मन्त्र, मूल, भैषज्य के निमित्त भिक्षा प्राप्त न करे ।' चिकित्साशास्त्र को जैन श्रमण के लिए पापश्रुत
१. मूलाचार ९।७४. २. काल क्षेत्र मात्र स्वात्म्यं द्रव्यगुरुलाघवं स्वबलम् ।
ज्ञात्वा योऽभ्यवहार्य भुङ्क्ते किं भेषजस्तस्य ॥ प्रशमरतिप्रकरण-८५१३७. ३. वही ९१७५. ४. वही ९७६. ४. उत्तराध्ययन २।३२-३३. ५. वही १५।८. ६. प्रश्नव्याकरण दशम अध्ययन पंचम संवरद्वार, (अंगसुत्ताणि भाग ३. पृ०
७०५-७०६. .. मूलाचार ६२६, निशीथ १३॥६९. ८. प्रश्न व्याकरण संवरतार १.
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