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व्यवहार : ३२३ करे । मित और दोष-रहित वाणी सोच-विचार कर बोलने वाला साधु सत्पुरुषों में प्रशंसा को प्राप्त करता है ।' ___ अन्य निषिद्ध व्यवहारः-श्रमणों को पाश्वस्थादि श्रमणों की वन्दना का निषेध है । इनके आगमन पर उठकर खड़े होना भी योग्य नहीं है । सुखेच्छा से अपने आचार में शिथिल श्रमणों के आगमन पर अभ्युत्थान करने से कर्मबंध होता है तथा प्रमाद की स्थापना से शिथिलाचार एवं पावस्थादि श्रमणों में वृद्धि हो सकती है। ___ इन सब निषिद्ध व्यवहारों के अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के व्यवहार निषिद्ध हैं। जैसे शरीर-संस्कार, चिकित्सा आदि । वट्टकेर ने कहा है स्त्री, पुत्रादि के स्नेह बंधन को तोड़ने वाले श्रमण अपने शरीर के प्रति ममत्व नहीं रखते । अतः मुख, नेत्र, अंगमर्दन, मुष्टि एवं काष्ठयन्त्र से शरीर का ताड़न-पोड़न, धूप-संस्कार, वमन, विरेचन, अञ्जन, अभ्यंग, मर्दन, लेपन, नासिका कर्म, वस्तिकर्म, शिरावेध आदि रूप में किसी भी प्रकार का शरीर संस्कार नहीं करना चाहिए।
श्रमण को यदि शरीर में किसी प्रकार के रोग या उससे उत्पन्न कष्ट की वेदना होती है तो औषधि से उसके निराकरण की चेष्टा नहीं करता अपितु समतापूर्वक सहन करते हुए चारित्र परिणाम में ही दृढ़ रहना चाहता है। क्योंकि वह यह अच्छी तरह जानता है कि शरीर रोगों का आयतन है । मूलाचार में कहा है कि सिर, कुक्षि आदि में वेदना उत्पन्न होने पर श्रमण उसे सहन करते हैं। किसी तरह की चिकित्सा की इच्छा नहीं करते अपितु दृढ़ चारित्र के बल से उसे सहते हैं। किसी व्याधि के होने पर वे पुनः पुनः यही चिन्तन करते हैं कि यह शरीर तो सैकड़ों व्याधियों से निर्मित घर है अतः इससे क्षणभर भी मोह नहीं करना चाहिए। शरीर के विषय में प्रतिकार रहित होकर उपस्थित व्याधि
१. दशवैकालिक-सप्तम अध्ययन. २. मूलाचार ७९७, दंसण पाहुड २३. ३. भगवती आराधना वि० टी० ११६. ४. मूलाचार ९।७०-७२, दशवकालिक ३।३।९. ५. वही ५१२१९-२२०. ६. वही ९।७३. ७. रोगाणं आयदणं वाघिसदसमुच्छिदं सरीरघरं ।
धीरा खणमवि रागं ण करेंति मुणी सरीरम्मि ॥ वही ९१७७.
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