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________________ ३२२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन है कि स्त्रियों को त्यागने वाला अनगार उनमें आसक्त न हो। भिक्षु धर्म को पेशल अर्थात् एकान्त कल्याणकारी मनोज्ञ जानकर उसमें अपनी आत्मा को स्थापित करे।' वचनों के विषय में वट्टकेर ने कहा है कि दुर्जन वचनों से डरना चाहिए क्योंकि पूर्वापर देखे बिना बोलने वाला श्रमण नगर की नालियों में बहने वाले कचरे के समान वचनों को बहाते रहते हैं ।२ स्थानांग सूत्र में कहा है कि निर्ग्रन्थ और निर्गन्थियों को निम्नलिखित छह अवचन (गहित वचन) नहीं बोलना चाहिए-१. अलोक (असत्य) वचन, २. हीलित (अवहेलना युक्त) वचन, ३. खिसित (मर्मवेधी) वचन, ४. परुष (कटुक) वचन, ५. अगारस्थित वचन-अर्थात् यह मेरा पुत्र, मेरी माता इत्यादि प्रकार के सम्बन्ध सूचक वचन । तथा ६. उपशांत कलह को उभाड़ने वाला वचन । दशवकालिक के "वाक्यशुद्धि" नामक सप्तम अध्ययन में किस प्रकार को भाषा न बोले आदि का विस्तृत विवेचन करते हुए कहा है कि परुष (कतार) और महान् भूतोपघाती सत्य भाषा भी न बोलना चाहिए क्योंकि इनसे पापकर्म का बन्ध होता है । काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोरइस तरह दूसरे के मन को चोट लगने वाली भाषा न बोले। प्रज्ञावान मुनि रे, होल ! रे गोल ! ओ कुत्ते, ओ वृषल । ओ द्रमक ! ओ दुर्भग -ऐसे वचन न बोले। इसी प्रकार हे. दादा-दादी, नाना-नानी, पिता, चाचा, भानजा आदि सम्बोधन पूर्वक किसी पुरुष या स्त्री को आमंत्रित न करे अपितु प्रयोजनवश यथायोग्य गुण-दोष का विचार कर एक बार या बार-बार उन्हें उनके नाम या गोत्र से आमंत्रित करे । इसी प्रकार गायें दुहने योग्य, बैल दमन करने, वहन करने तथा रथ योग्य हैं-ऐसा न बोले । उद्यान, पर्वत और वन में जाकर मुनि इस प्रकार न कहे कि ये वृक्ष प्रासाद, स्तम्भ, तोरण, घर, अर्गला, नौका आदि के योग्य हैं । ये फल पक्व हैं, पकाकर खाने योग्य हैं, तोड़ने योग्य हैं, नदियाँ भरी हुई है। आपने बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा पकाया आदि रूप सावध वचनों का प्रयोग साधु को नहीं करना चाहिए। सावध का अनुमोदन करने वाली, अवधारणी और पर-उपघातकारिणी भाषा, क्रोध, लोभ, भय, मान या हास्यवश न बोले और वाक्यशुद्धि को भली भांति समझकर दोष युक्त वाणी का प्रयोग न १. उत्तराध्ययन ८।१९. २. विहेदव्वं णिच्चं दुज्जणवयणा पलोट्टजिब्भस्स । बरणयरणिग्गमं पिव बयणकयारं बहंतस्स ॥ मूलाचार १०७१. ३. स्थानांग सूत्र ६११००. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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