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________________ व्यवहार : ३२१ वह समस्त श्रमणों को दूषित करने वाला संसक्त-श्रमण है। उत्तराध्ययन में भी कहा है कि जो श्रमण लक्षणशास्त्र (शरीर के लक्षणों, चिह्नों को देखकर शुभाशुभ फल कहने वाले सामुद्रिक शास्त्र), स्वप्नशास्त्र और अंग विद्या का प्रयोग करते हैं उन्हें श्रमण नहीं कहा जा सकता-ऐसा आचार्यों ने कहा है । बौद्ध परम्परा में भी कहा है कि अंग-निमित्त, उत्पाद, स्वप्न, लक्षण आदि विद्यायें "तिर्यक विद्या" हैं। इनसे आजीविका करने वाले की "मिथ्या आजीविका" है · तथा जो इनसे परे होता है वही आजीव-परिशुद्धि शील' है । परिग्रह एवं सावध कार्यों में आसक्त, क्रोध, मान, माया और लोभ-कषायों से युक्त श्रमण लोक-व्यवहार में भले ही चतुर रहे पर वे सम्यक्त्व से रहित ही होते हैं। अत्यन्त क्रोध, चंचलता, चारित्र में आलस्य, दूसरे के अप्रत्यक्ष में दोष कहना, पिशुनता, दीर्घकषाय, दंभ, परपीडन, मारण आदि मंत्रशास्त्र अर्थात् हिंसा पोषक शास्त्रों का सेवन तथा आरम्भ इत्यादि दोषों से युक्त श्रमण चाहे वह चिरकाल से ही दीक्षित क्यों न हो-ऐसे श्रमण से सदाचारी श्रमण को सदा बचना चाहिए । धर्म से युक्त, असंवृत्ती, नीच तथा लौकिक-अलौकिक क्रियाओं के विवेकज्ञान से रहित दीर्घकाल से प्रवजित श्रमणों के भी संसर्ग से बचने के लिए कहा गया है।" निषिद्ध वचन व्यवहार : लिंगपाहुड में कहा गया है कि श्रमण का वेष धारण करके, नाचना, गाना, बजाना, बहुमान से गर्वित होकर कलह, विवाद आदि करना, धूतक्रीडा, कन्दादि भावनाओं का चिन्तन, मायाचार, व्यभिचार, भोजन में रसगृद्धि, बिना ईर्यापथशुद्धि के चलना, महिला वर्ग, शिष्य एवं गृहस्थों के प्रति राग भाव रखना इत्यादि दोषों या इनमें से कोई एक भी दोष से युक्त श्रमण भावों से विनष्ट हुआ पार्श्वस्थ श्रमण है, यथार्थ साधु नहीं। तथा वह तिर्यग्योनि और नरक का पात्र ही है। उत्तराध्ययन में कहा १. रयणसार ९६, चारित्रसार १४४. २. जे लक्खणं च सुविणं च अंगविज्जं च जे पउंजन्ति । __नहु ते समणा वुच्चन्ति एवं आयरिएहिं अक्खायं ॥ उत्तराध्ययन ८।१३. ३. विसुद्धिमग्ग १११, पृ० ३०-३१. ४. रयणसार ९७. ५. मूलाचार १०॥६४-६७. ६. लिंगपाहु गाथा-३।६।१२।१५।१७।१८।२०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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