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३२० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
- वन्दना सम्बन्धी व्यवहार का विशेष विवेचन तृतीय अध्याय के वन्दना आवश्यक में किया जा चुका है। वन्दना सम्बन्धी विवेचन से यह भी ज्ञात होता है कि वन्दना की विशुद्ध विधि के लिए सजगता की बहुत आवश्यकता होती है ।
इस प्रकार वैयावृत्य और विनय विषयक परस्पर व्यवहारों का यह विवेचन आचार तथा व्यवहार शास्त्र की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । वैयावृत्य विषयक पूर्वोक्त विवेचन में यह भी दृष्टिगोचर होता है कि ज्येष्ठ श्रमण तथा आचार्यादि की वैयावृत्य तो स्वाभाविक है किन्तु लघु श्रमण भी यदि क्षीणकाय या अस्वस्थ हो जाये तो आचार्य या अन्य ज्येष्ठ श्रमणों को उसकी यथायोग्य वैयावृत्य करने का विधान है। निषिद्ध व्यवहार : __ श्रमण को अपने लक्ष्य प्राप्ति में बाधक किसी भी कार्य को मन, वचन और काय से न करने का विधान है। बाल, वृद्ध, श्रान्त या ग्लान सभी श्रमणों का यह प्रथम कर्तव्य है कि वे उसी प्रकार अपने योग्य आचरण करें जिससे मूल (श्रमणत्व या मूलगुणादि) का ही उच्छेद न हो ।' अपने गुरु के विरुद्ध कभी आचरण नहीं करना चाहिए। ऐसा करने वाले श्रमण बहुमोही, कुत्सित् शील एवं आचरण से युक्त होकर असमाधि से मरण करने वाले होने के कारण अनन्तसंसारी होते हैं ।२ श्रमण जीवन की कुछ आवश्यकतायें जैसे आहार, उपधि और शय्या को शुद्धि किये बिना सेवन करने से श्रमण मूलस्थान अर्थात् गृहस्थावस्था को प्राप्त होकर 'श्रामण्य तुच्छ' (समणपोल्लो) अर्थात् यतित्वविहीन कहलाने लगता है। तथा उसका कायोत्सर्ग, मौन, अभ्रावकाश एवं आतापन योग आदि किसी प्रयोजन के भी नहीं । अतः जो श्रमण शास्त्रविहित अनुष्ठान में प्रवृत्ति करने वाला है वह सबसे पहले निषिद्ध आचरणों से निवर्तित हो, क्योंकि कारण के नाश से ही कार्य का नाश होता है। जब तक कारण का सम्पूर्ण नाश नहीं होता तब तक कार्य से छुटकारा नहीं मिल सकता। __ मंत्र, तंत्र, ज्योतिष आदि के प्रयोग का कड़ा निषेध करते हुए रयणसार में कहा है जो श्रमण मंत्र, तंत्र तथा भूत-प्रेत आदि विद्याओं का प्रदर्शन कर अपनी उपजीविका करता है धन-धान्य आदि ग्रहण तथा राजा की सेवा करता है
१. प्रवचनसार ३।३०. २. मूलाचार २०७१. ३. पिंडोवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो ।
मूलढाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो ।। वही १०।२५. ४. वही १०॥२७.
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