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________________ व्यवहार : ३१९ ! को और सात हाथ की दूरी से श्रमण की वंदना आर्यिका को गवासन से ही बैठकर करनी चाहिए।' मूलाचार के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि उस समय आचार्य, उपाध्याय, और साधु आदि ही श्रमण संघ में होते थे किन्तु परवर्ती काल में श्रमण बनने की भूमिका तैयार करने हेतु क्रमशः क्षुल्लक-क्षुल्लिका और ऐलक-जैसे साधुपूर्व की भूमिका हेतु लघु पदों का सृजन हुआ जो आज भी विद्यमान है । यद्यपि समय की दृष्टि से काफी प्राचीन (मूलाचार के आसपास का) माने जाने वाले ग्रन्थ "भगवती आराधना" में क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं रूप बाल मुनियों के उल्लेख संघ के अन्तर्गत मिलते हैं ।२ इनकी परस्पर वन्दना आदि के विषय में आचारसार में कहा है कि ऐलक-क्षुल्लक परस्पर में 'इच्छामि' करते हैं । मुनियों को 'नमोऽस्तु' करते हैं और आयिकाओं को 'वंदामि' करते है। ब्रह्मचारी गण या श्रावक भी मुनियों को 'नमोऽस्तु', आर्यिकाओं को 'वंदामि' करते हैं, ये मुनि, आयिका भी प्रतियों को समाधिरस्तु' अथवा 'कर्मक्षयोऽस्तु' ऐसा आर्शीर्वाद देते हैं । अव्रती श्रावक-श्राविकाओं को 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' 'शुभमस्तु' या 'शांतिरस्तु' ऐसा आर्शीवाद देते हैं। अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा वंदित होने पर उन्हें धर्मलाभोऽस्तु और निम्न जाति के लोगों द्वारा वन्दना किये जाने पर "पापक्षयोऽस्तु' ऐसा कहकर आर्शीवाद देते हैं। कब वन्दना न करें?-श्रमणों को यथावसर वन्दना करने का विधान है। किन्तु यदि वंदनीय आचार्य आदि एकाग्रचित्त हैं, वन्दनकर्ता की ओर पीठ किये है, प्रमत्त में रत, आहार, नीहार तथा मल-मूत्र विसर्जन आदि अवसर पर कभी वन्दना नहीं करना चाहिए। १. पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य । परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति ।। मूलाचार ४१९५. २. खुड्डा य खुदिडयाओ"भ० आ० ३९६. ३. नमोऽस्त्विति नतिः शस्ता समस्तमतसम्मता । कर्मक्षयः समाधिस्तेऽस्त्वित्यार्यजने नते ।। धर्मवृद्धिः शुभं शान्तिरस्त्वित्याशीरगारिणी । पापक्षयोऽस्त्विति प्राज्ञैश्चाण्डालादिषु दीयताम् ।। आचारसार ६६-६७ पृ० ३७-३८. ४. वाक्खितपराहुतं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो । आहारं च करतो णीहारं वा जदि करेदि ॥ मूलाचार ७३१००. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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