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३१८ : मूलाचार का समोक्षात्मक अध्ययन
विज्ञप्ति सहित इच्छाकार पूर्वक वन्दना करनी चाहिए। जिसकी वन्दना की जाती है उन गुरु को भी ऋद्धि और वीर्य आदि के गर्व से रहित, शुद्धभाव से कृतिकर्म करने वाले को हर्ष उत्पन्न करते हुए वन्दना स्वीकृत करना चाहिए। ऐसा करने से वन्दना करने वाले श्रमण के मन में भी धर्म और धर्मफल के विषय में हर्ष उत्पन्न होता है।
वन्दना या विनय आदि के लिए श्रमण को योग्य काल, अवसर या प्रसंग का ध्यान रखना भी आवश्यक है। जैसे-आलोचना अथवा आलोचना कार्य, सामायिकादि आवश्यक क्रिया के समय, प्रश्न पूछने के पूर्व, पूजन, स्वाध्याय, अपराध-इन प्रसंगों में गुरु आचार्यादि गुणज्येष्ठ की वंदना करनी चाहिए। शरीरशुद्धि, भिक्षा, विहार के समय तथा चैत्य, नगर, गाँव आदि से वसतिका या विहार में आचार्यादि के आगमन पर भी उनकी अभ्युत्थान पूर्वक वन्दना करना चाहिए। आचार्य के अभाव में उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर आदि पूज्य एवं ज्येष्ठश्रमण की वन्दना करना चाहिए । इनके अभाव में जिसकी हितकर प्रवृत्ति हो एवं जिसे पूज्य समझें उसी की वन्दना करनी चाहिए।" एकान्त भूमिप्रदेश में पर्यकासन आदि रूप में शान्त मन से सम्मुख बैठे गुरु, आचार्य आदि की मेधावी मुनि को विज्ञप्ति पूर्वक अर्थात् वन्दना की प्रार्थना करके वन्दना (कृतिकर्म) करना चाहिए। आचारसार में कहा है प्रातः कालीन देव वंदना के अनन्तर सभी साधु विधिवत् कृतिकर्म आचार्य की वंदना करते हैं तब आचार्य भी अपनी पिच्छिका उठाकर उन श्रमणों के प्रति-नमोस्तु करते हुए प्रतिवंदना करते हैं।
आयिकाओं द्वारा आचार्यादि की वन्दना की विधि के विषयमें मूलाचार में कहा है कि पाँच हाथ की दूरी से आचार्य की, छह हाथ की दूरी से उपाध्याय
१. मूलाचार ७४११२. २. वही, ११३. ३. आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूयणे य सज्झाए ।
अवराधे य गुरुणं बंदणमेदेसु ठाणेसु ॥ वही, ७।१०२. ४. कुन्द० मूलाचार ७१२२. ५. वही, ७।१२३. ६. मूलाचार ७१०१. ७. विगौरवादिदोषेण सपिच्छांजुलिशालिना।
सदब्जसूर्याचार्येण कर्त्तव्यं प्रतिवंदनम् ।। आचारसार पृ० ३६.
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