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________________ व्यवहार : ३१७ रात्रिक मुनियों में, आर्यिकाओं में तथा श्रावकों में यथायोग्य अप्रमत्त भाव से विनय करना चाहिए ।' वंदना - (विनय ) की विधि-वन्दना करने की मुद्रा और विधि के विषय में वट्टकेर ने कहा है कि सर्वप्रथम श्रमण अपने सब अंगो तथा भूमि का पिच्छिका से प्रमार्जन करे। फिर पिच्छी हाथ में लेकर तथा उसे मस्तक के पास रखकर परवर्द्धशय्या की मुद्रा में नम्रीभूत होकर 'मैं वन्दना करता हूँ' - इस प्रकार मुख से उच्चारण करके वन्दना करना चाहिए । अनगार धर्मामृत में कहा है पिच्छी सहित दोनों हाथों को अंजलीबद्ध करके उसे हृदय के मध्य स्थापित करे, और पयंकासन या वीरासन से एकाग्रमन होकर स्वाध्याय करना चाहिए । यदि स्वाध्याय करने में असमर्थ हो तो उसी प्रकार से वन्दना करनी चाहिए । खड़े होकर वन्दना करने की शक्ति नहीं है तो पर्यंकासनपूर्वक बैठकर पूर्ववत् पिच्छी सहित अंजलि जोड़कर वन्दना करनी चाहिए । मुलाचार में भी कहा है पर्यंक अथवा वीरासन से बैठकर चक्षु से पुस्तक को, पिच्छी से भूमि का और प्रासुक जल से हाथ-पैर का सम्मार्जन करे और दोनों हाथों को मुकुलित करके प्रमाण करे तब सूत्र तथा अर्थ के योग से युक्त अपनी शक्ति से स्वाध्याय करें । इस तरह जो मुनि स्वाध्याय करने में असमर्थ होता है वह उसी विधि से देव वन्दना करता है । यद्यपि देव वन्दना खड़े होकर की जाती है किन्तु अशक्त होने से बैठकर भी वन्दना कर सकता है । सामायिक एवं देववन्दना के समय अंजलि और हाथ शुद्ध करके सावधान और एकाग्र अन्तःकरण सहित तथा आकुलता रहित होकर आगमानुसार सामायिक, देववन्दनादि करना चाहिए ।" वन्दनीय श्रमण और वन्दनकर्ता — इन दोनों के atra बाघा रहित एक हाथ ( हस्तमात्र ) का अन्तर होना चाहिए। जिससे वन्दना बिना बाधा के सम्पन्न हो सके । अपनी पिच्छिका से भूमि, शरीर आदि का स्पर्श एवं प्रमार्जन करके, वन्दना की याचना करे अर्थात् 'मैं वन्दना करता है' - इस १. रादिणिए ऊणरादिणिएसु अ अज्जासु चेव गिहिवग्गे । विणओ जहारिओ सो कायव्वो अप्पमत्तेण ।। मूलाचार ५। १८७. २. आचारसार २।६१. मूलाचार ७।१०१. ३. सप्रतिलेखन मुकुलित वत्सोत्सङ्गितकरः सपर्यङ्कः । कुर्यादेकाग्रमनाः स्वाध्यायं वन्दनां पुनरशक्त्या || अनगार धर्मामृत ९ । ४३. ४. पलियंकणिसेज्जगदो पडिलेहिय अंजलीकदपणामो । सुत्तत्यजोगजुत्तो पठिदब्बो आदसत्तीए । मूलाचार ५१८४. ५. मूलाचार ७।३९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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