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३१६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
चारित्र में अधिक गुण वाले श्रमण यदि गुणहीन श्रमणों के साथ वन्दनादि क्रियायें करते हैं तो वे मिथ्यात्व से युक्त और चारित्र से भ्रष्ट माने जायेंगे ।" अतः जो श्रद्धा से रहित, चारित्रहीन, अपवादशील एवं साधुत्व से विपरीत हैं उनके साथ तथा लौकिक जनों के साथ समाचारी नहीं करना चाहिए |2 असंयत जनों या असंयमी की वन्दना नहीं करनी चाहिए। जैसे अविरत माता-पिता, गुरु, राजा, अन्यतीर्थक तापसी, तथा पाश्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसंज्ञ और मृगचरित्र - इन पाँच पापश्रमणों, कुदेवों तथा देश विरत श्रावकों आदि की भी वन्दना नहीं करनी चाहिए । विविध शास्त्रों का ज्ञाता यदि कुमत और कुशास्त्र की प्रशंसा करता है तो वह शील, व्रत तथा ज्ञान से रहित माना जाता है । इनकी वन्दना भी अनुचित है । " किन्तु जो सहजोत्पन्न यथाजात रूप को देखकर मान्य नहीं करता तथा उसकी विनय नहीं करता अपितु मत्सर भाव रखता है— ऐसे संयम प्रतिपन्न श्रमण को भी मिथ्यादृष्टि कहा जाता है । आयास पूर्वक प्रयास से आते हुए मुनि को देखकर साधुओं को वात्सल्य के लिए, जिनेन्द्रदेव की आज्ञा पालन करने के लिए तथा उस मुनि का संग्रह करने (अपनाने) के लिए, उसे प्रणाम करने के लिए तत्क्षण खड़े हो जाना चाहिए और सात कदम आगे जाकर परस्पर प्रणाम करके आगन्तुक के प्रति करने योग्य कर्तव्य करने के लिए रत्नत्रय की कुशलता पूछना चाहिए ।
तपो ज्येष्ठ मुनियों और तप में भक्ति तो करनी ही चाहिए किन्तु शेष छोटे तपस्वियों की अवहेलना ( तिरस्कार ) भूलकर भी नहीं करनी चाहिए ।" जो दीक्षा में एक रात्रि भी बड़े हैं वे रात्र्यधिक दीक्षा गुरु, श्रुतगुरु और तप में अपने से ज्येष्ठ मुनियों में तथा दीक्षा में एक रात्रि न्यून भूमिकाओं वाले ऊन
१. प्रवचनसार ३।६८.
२. नयचक्र ३३८.
३. असंजदं ण वंदे - दंसण पाहुड २६.
४. णां वंदेज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु गरिंद अण्णतित्थं व 1
देशविरद देवं वा विरदो पासत्थणगं वा ॥
धर्मामृत ८५२.
५. शील पाहुड १४.
६. दंसण पाहुड २४.
७. मूलाचार ४।१६०-१६१, प्रवचनसार ३।६१-६२.
८. वही, ५।१७४, भगवती आराधना ११७.
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मूलाचार ७।९५, अनगार
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