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व्यवहार : ३१५ श्रावक ही । जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप तथा विनय में निरन्तर लीन रहते है, तथा गुणधारक जनों आदि के गुणों का बखान करते हैं वे वन्दना करने योग्य ( पूज्य ) हैं । इस कथन के अनुसार वन्दना इस विचार पूर्वक करना चाहिए कि मैं तपस्वी श्रमणों को, उनके शील, गुण (मूलगुणों तथा उत्तरगुणों) ब्रह्मचर्य, और मुक्तिगमन को सम्यक्त्व सहित शुद्ध भाव से वन्दना करता | वंदना या विनय के अन्तर्गत श्रमण की आयु दीक्षा ग्रहण के समय से मानी जाती है । यदि जन्म से कम उम्र का श्रमण दीक्षा काल में ज्येष्ठ है तो दीक्षाकाल में लघु श्रमण को (भले ही वह उम्र में बड़ा हो ) उस दीक्षा ज्येष्ठ श्रमण की यथायोग्य वन्दना करने का विधान है । श्रमणों में परस्पर अभिवादन-वन्दनादि व्यवहार या परस्पर के सहयोग से सम्पन्न होने वाली धार्मिक क्रियाओं अथवा समतापूर्वक चलने वाले व्यवहार रूप अनुष्ठान को 'सामाचारी' के अन्तर्गत कहा गया है ।
विनय और इसके भेद-प्रभेदों का विस्तृत विवेचन तृतीय अध्याय में किया जा चुका है । औपचारिक कायिक-विनय के अन्तर्गत आचार्यादि ज्येष्ठ श्रमण के आगमन पर आदर से उठना, सन्नति अर्थात् मस्तक से नमस्कार करना, आसन दान देना, अनुप्रदान अर्थात् पुस्तक, पिच्छिकादि उपकरण देना, कृतिकर्म प्रतिरूप - अर्थात् श्रुतभक्ति आदि पूर्वक कायोत्सगं करना, योग्यतानुसार विनय एवं वैयावृत्य करना, अपना आसन त्याग करना, तथा अनुव्रजन — अर्थात् प्रस्थान के समय उनके पीछे पीछे जाना - ये सब श्रमणों के विनय सम्बन्धी व्यवहार हैं । विनय के पात्र गुण घरों और शीलघरों की वन्दना करना चाहिए। ये इसलिए वन्दनीय हैं क्योंकि ये चारित्र, ध्यान और अध्ययन में तत्पर, क्षमादि धर्मों से युक्त, पंचमहाव्रतधारी, संयम और धैर्यं गुणों के धनी, आगम के ज्ञाता-दृष्टा, तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप - इन सबमें सदा तत्पर रहते हैं अतः इन सबकी विनय-वन्दना में सदा उद्यत होना चाहिए । वन्दना करने वाले श्रमण को भी पंचमहाव्रतों के पालन में एवं धर्म तथा उसके फल में आनन्द मानने वाला, आलस्य और मानरहित तथा दीक्षा में लघु होना चाहिए तभी दीक्षा में ज्येष्ठ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधरादि की कृतिकर्म - विनय करने से उस श्रमण के कर्मों की निर्जरा होती है ।
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१. दंसण पाहुड क्रमशः गाथा २७, २३ तथा २८. २. मूलाचार ५।१८५.
३. वही, ७।९८-९९.
बही, ७।९३-९४.
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