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३१४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
प्रधान भी होता है।' श्रमणों को यथायोग्य वैयावृत्य भी करनी चाहिए । यह विधान शुभोपयोगी श्रमण को ही विधेय है। शुद्धोपयोगी श्रमण इन सबसे परे होता है । सामान्य श्रमण तो अपनी पूजा-प्रतिष्ठा की अपेक्षा किये बिना ही उपसर्ग से पीड़ित वृद्धावस्था के कारण क्षीणकाय वाले श्रमणों की वैयावृत्य करता है । मूलाचार में कहा है गुणाधिक, श्रमण, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल, साधुगण, कुल, चतुर्विधसंघ और समनोज्ञ (सुखासीन) इन मुनियों पर किसी प्रकार की आपत्ति या उपद्रव आये तो वसति, स्थान, आसन तथा उपकरण-इनका प्रतिलेखन द्वारा उपकार करना, आहार, औषधि आदि से, मलादि दूर करने से और उनको वन्दना आदि के द्वारा वैयावृत्ति करना चाहिए ।
आगन्तुक श्रमण का भी ये कर्तव्य है कि गच्छ में ग्लान-रोगादिक से पीड़ित मुनि तथा गुरु-आचार्य आदि ज्येष्ठ-मुनि, बालमुनि अर्थात् नवदीक्षित या पूर्वापर विवेक रहित मुनि, वृद्ध अथवा दीक्षाधिक मुनि तथा शैक्ष मुनियों की अपनी शक्ति के अनुसार आदरपूर्वक यथायोग्य वैयावृत्य करे, ऐसा करने का विधान भी किया गया है। रोग, क्षुधा, तुषा अथवा श्रम से आक्रान्त श्रमण को देखकर साधु के अनुसार वैयावृत्यादि श्रमण को अवश्य करनी चाहिए। रोगी, गुरु, बाल तथा वृद्ध श्रमणों की वैयावत्य में शुभोपयुक्त लौकिक जनों के साथ श्रमणों को बातचीत भी निन्दित नहीं है। यह प्रशस्तभूत चर्या रोगसहित होने के कारण श्रमणों को गौण होती है तथा गृहस्थों को मुख्य । क्योंकि समाधि पैदा करने, विचिकित्सा (ग्लानि) दूर करने, प्रवचन वात्सल्य प्रकट करने तथा सनाथता अर्थात् निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देने के लिए वैयावृत्य की जाती है । ... वंदना सम्बन्धी परस्पर व्यवहार : आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है शरीर, कुल, जाति और इन सभी की संयुक्त रूप से वन्दना नहीं की जाती, क्योंकि गुणहोन की वन्दना कौन करता है ? गुणों के बिना न तो श्रमण होता है और न
१. प्रवचनसार ३१४९. २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४५९. ३. गुणाधिए उवज्झाए तवस्सि सिस्से य दुबले ।
साहुगण कुले संघे समणुण्णे य चापदि ।। मूलाचार ५।१९४. ४. वही, ४।१७४. ५. प्रवचनसार ३१५२. ६. प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति २५४. ७. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२४।१७ (द्वितीय भाग) पृ० ६२४.
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