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________________ व्यवहार : ३१३ (५) दान-सम्भोग-समान कल्प के साधुओं को उपधि, आहार, शिष्य आदि देना दान कहा जाता है । एक ही संघ के भिक्षु अपने शिष्यों को आपस में एक दूसरे को दे सकते हैं। (६) निकाचन (निमंत्रण) सम्भोग-समान कल्प वाले श्रमण परस्पर में आहार, उपधि आदि के लिए निमंत्रित कर सकते हैं । (७) अभ्युत्थान-सम्भोग--ज्येष्ठ श्रमणों के आगमन पर अपने आसन से उठकर उन्हें सम्मान देना, आसन प्रदान करना । (८) कृतिकर्मकरण (वन्दना)-दीक्षा-ज्येष्ठ आचार्यादि को वन्दन करना, विनय एवं आदर करना। (९) वैयावृत्यकरण (सहयोग दान)-वृद्ध, रोगी आदि श्रमणों का सम्मान एवं सावधानी पूर्वक वैयावृत्य करना उसके अनुसार शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार की समस्याओं के समाधान में योग देना चाहिए । (१०) समवसरण (सम्मिलन) सम्भोग-इसके अनुसार समान कल्प वाले साधु एक साथ मिलते हैं। प्रवचन आदि के अवसर पर परस्पर एक दूसरे के यहां जाते हैं। (११) सन्निषद्या सम्भोग-आसन आदि का देना। साम्भोगिक श्रमणों का एक साथ बैठकर प्रवचन, शास्त्र चर्चा आदि करना । इसके अनुसार दो साम्भोगिक आचार्य निषद्या पर बैठकर श्रुत परिवर्तन आदि करते हैं । (१२) कथाप्रबन्ध-सम्भोग-परस्पर साथ बैठकर धार्मिक विषयों पर विचार करना। इसके द्वारा कथा सम्बन्धी व्यवस्था दी जाती है । इस प्रकार सम्भोग के इन बारह भेदों के द्वारा समानकल्पी श्रमणों के परस्पर व्यवहार की मर्यादा निश्चित की गई है। इनका अतिक्रमण करने पर समानकल्पी साधु का सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाता है। वैयावृत्य सम्बन्धी व्यवहार : श्रमणों में परस्पर वैयावृत्य सम्बन्धी व्यवहार भो महत्वपूर्ण होते हैं । श्रमण के दो भेद हैं-शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी । इनमें शुभोपयोगी श्रमण सराग चारित्रधारी होता है। वे अर्हन्तादि में भक्ति, साधुजनों में वात्सल्य तथा आदर भाव रखते, आचार्यादि की वन्दना, सेवा करते हैं । ये सब कार्य संयम की साधना की दृष्टि से ही विधेय हैं । ' षट्कायिक जीवों की विराधना किये बिना ऋषि, मुनि, यति और अनगार-इस चतुर्विध संघ का वह श्रमण सदा उपकार करता है और वह सराग चारित्र वाले श्रमणों में १. प्रवचनसार ३।४५-४७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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