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________________ ३१२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन तथा एक मंडली में भोजन करने वाले सांभोगिक कहलाते हैं । यह प्रतीकात्मक अर्थ है । किन्तु स्वाध्याय, भोजन आदि सभी मंडलियों में जिसका सम्बन्ध होता है वह सांभोगिक कहलाता है।' निशीथ भाष्य के अनुसार स्थितिकल्प, स्थापना कल्प और उत्तरगुणकल्प-ये कल्प (आचार-मर्यादा) जिनके समान होते है, वे मुनि सांभोगिक कहलाते हैं और जिन मुनियों के ये कल्प समान नहीं होते वे असांभोगिक कहलाते हैं। तथा जिनका स्वाध्याय, आहारआदि सभी मंडलियों से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाता है वह विसांभोगिक है ।२ साम्भोगिक निम्नलिखित बारह प्रकार के हैं । ३ (१) उपधि-सम्भोग-मर्यादा के अनुसार संयम, ज्ञान आदि विषयक वस्तुएँ आवश्यकतानुसार श्रमणों को कार्यवश देना-लेना । (२) श्रुत-सम्भोग-परस्पर एक दूसरे को ज्ञान देना एवं शास्त्राध्ययन करवाना । इसके अन्तर्गत समानकल्प वाले साधुओं को श्रुत की वाचना दी जाती है। और वाचना देने में समर्थ प्रवर्तिनी न हो तो साध्वियों को आचार्य वाचना देते हैं। (३) भक्तपान सम्भोग-इसमें समान कल्पवाले साधुओं के साथ एक मंडली में बैठकर भोजन करना तथा एक दूसरे की लायी हुई भिक्षा को परस्पर में ग्रहण करना । (४) अंजलिप्रग्रह (प्रणाम) सम्मोग-यथायोग्य परस्पर एक दूसरे की वंदना या सम्मान करना। १. ठाणं ५।४६ टिप्पण पृष्ठ ६२०. २. णितिकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविधमण्णयरे । उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स सम्भोगो ॥ -निशीथभाष्य गा० २१४९. ३. दुवालसविहे सम्भोगे पण्णत्ते, तं जहा उवही सुअभत्तपाणे, अंजलीपरगहेत्ति य । दायणे य निकाए अ, अब्भुट्टाणेत्ति आवरे ।। कितिकम्मस्स य करणे, वेयावच्चकरणे इअ । समोसरणं संनिसेज्जा य, कहाए अ पबंधवे ॥ समवायांग १२॥३. व्यवहारसूत्र उद्देश्य--५. निशीथचूणि उद्देश्य-५. ४. संजतीण जइ आइरियं मोत्तुं अण्णा पवत्तिणामातो वायंति णत्थि, आयरिओ वायणातीणि सव्वाणि एताणि देति न दोसः ।।-निशीथचूणि पु० ३४७. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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