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________________ व्यवहार : ३०९ ९. निमन्त्रणा-"मैं आपके लिए आहार आदि लाऊँ ?-इस प्रकार गुरु आदि को निमंत्रित करना । १०. उवसंपदा-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष प्राप्ति के लिए कुछ समय तक दूसरे आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करना । उत्तराध्ययन में इनके नाम और क्रम इस प्रकार है-आवश्यको, नषेधिकी, आपृच्छना, प्रतिपृच्छना, छन्दना, इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, अभ्युत्थान और उपसंपदा।' इस क्रम एवं नाम में कुछ भिन्नता है। स्थानांग के प्रथम तीन सामाचारी का इसमें छठा, सातवां और आठवां क्रम है। तथा 'निमंत्रणा' को इसमें 'अभ्युत्थान' कहा गया है । उत्तराध्ययन तथा आवश्यक नियुक्ति में इनका अर्थ इस प्रकार किया हैअपने ठहरने के स्थान से बाहर निकलते समय "आवस्सियं" का उच्चारण करना आवश्यकी है तथा प्रवेश करते समय 'निस्सिहियं' का उच्चारण करना, नषेधिकी है । अपने कार्य के लिए गुरु से अनुमति लेना आपृच्छना तथा दूसरों के कार्य के लिए अनुमति लेना प्रतिपृच्छना है । आवश्यक नियुक्ति में प्रथम या द्वितीय बार किसी भी प्रवृत्ति के लिए गुरु से आज्ञा प्राप्त करने को आपृच्छा कहा है तथा प्रयोजनवश पूर्व-निषिद्ध कार्य करने की आवश्यकता होने पर गुरु से उसकी आज्ञा प्राप्त करने को प्रतिपृच्छा कहा है। गुरु के द्वारा किसी कार्य पर नियुक्त किए जाने पर उसे प्रारम्भ करते समय पुनः गुरु की आज्ञा लेना भी प्रतिपृच्छा है। आहार के लिए सार्मिक साधुओं, गुरु आदि को आमन्त्रित करना छन्दना है । दूसरों का कार्य अपनी सहज अभिरुचि से करना और अपना कार्य करने के लिए दूसरों को उनकी इच्छानुकूल विनम्र निवेदन करना इच्छाकार है। वस्तुतः संघीय व्यवस्था में परस्पर सहयोग लिया-दिया जाता है, किन्तु वह बल-प्रेरित न होकर इच्छा-प्रेरित होता है। क्योंकि बल-प्रयोग का सर्वथा वर्जन है । अतः बड़ा साधु छोटे साधु से और छोटा साधु बड़े साधु से कोई काम कराना चाहे तो उसे इच्छाकार का प्रयोग करना चाहिए कि 'यदि आपकी इच्छा हो तो मेरा काम आप करें-ऐसा कहना चाहिए। दोष की निवृत्ति के १. उत्तराध्यन २६।१-४. २. आवश्यक नियुक्ति गाथा ६९७. ३. उत्तराध्ययन वृहद् वृत्ति, पत्र ५३४. ४. आणा बलाभिओगो निग्गंथाणं न कप्पए काउं । इच्छा पउंजिअव्वा, सेहे रायणिए य तहा ।। ~आवश्यक नियुक्ति गाथा ६७७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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