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३०८ : मूलाचार का समोक्षात्मक अध्ययन आये प्राघूणिक या पादोष्ण (आगन्तुक अतिथि श्रमण) का विनय और उपचार करना, उचित आसन, संस्तर आदि देना, प्रिय वचन कहना, उनकी आवासभूमि, मार्ग आदि के विषय में पूछना, उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना । २. क्षेत्रोपसंपत्संयम, तप, गुण, शील, श्रम तथा नियमादि की जिस क्षेत्र में वृद्धि हो उस क्षेत्र में रहना । ३. मार्गोपसंपत्-संयम, तप, ज्ञान और ध्यान से युक्त आगन्तुक श्रमणों और अपने संघ के श्रमणों से परस्पर मार्ग में आने-जाने से सम्बन्धित कुशल समाचार (सुख प्रश्न) पूछना । ४. सुखदुःखोपसंपत्-साधु का सुख दुख के समय वसतिका, आहार और औषधि आदि से यथायोग्य उपचार करना, इसके विषय में पूछना तथा "मैं आपका ही हूँ" अर्थात् आपके सुखदुःख मेरे है, आप आज्ञा कीजिए-इस तरह के वचन कहना, उनके कष्ट दूर करना । तथा ५. सूत्रोपसंपत्-सूत्रों के अध्ययन में प्रयत्न करना। इसके तोन भेद है-सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ-इनके ग्रहण में प्रयत्न करना।'
श्वेताम्बर परम्परा के स्थानांग (१०।१०२), भगवती (२५।७), उत्तराध्ययनसूत्र (२६।१-७) तथा आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थों में इन दसविध समाचार का विवेचन "सामाचारी" के रूप में है। स्थानांग सूत्र में इनके नाम । इस प्रकार है-इच्छा, मिथ्या, तथाकार, आवश्यको, नैषेधिकी, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दना, निमन्त्रणा और उपसंपदा ।
१. इच्छा-कार्य करने या कराने में इच्छाकार का प्रयोग । २. मिथ्या-भुल हो जाने पर स्वयं उसकी आलोचना करना। ३. तथाकार-आचार्य के वचनों को स्वीकार करना ।
४. आवश्यकी-उपाश्रय के बाहर जाते समय “आवश्यक कार्य के लिए जाता हूँ"--ऐसा कहना।
५. नैषेधिकी-कार्य से निवृत्त होकर आए तब ऐसा कहना कि "मैं निवृत्त हो चुका हूँ।"
६. आपृच्छा-अपना कार्य करने की आचार्य से अनुमति लेना। ८. छन्दना-आहार के लिए सार्मिक साधुओं को आमन्त्रित करना ।
१. वही ४।१४०-१४४. २. उत्तरज्झयणाणि भाग २. (टिप्पण) २६।१-७ पृष्ठ १७८-१८०, टिप्पण
सं० १. ३. इच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिया य णिसीहिया।
आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य णिमंत्रणा ।। उवसंपया य काले सामायारी दसविहा उ ।। ठाणं १०१०२ पृष्ठ ९२७.
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