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व्यवहार : ३०७
दे जाते है। मुनियों के ये दोनों ही समाचार है। तुम्हारी कृपा से हम यहाँ ठहरते हैं । तुम किसी प्रकार का उपद्रव मत करना, इस प्रकार जीवों को तथा व्यन्तरादिक देवों को उपद्रव का निषेध करना निषिद्धिका नामक समाचार नीति है।'
६. आपृच्छा-आतापनादि योग-ग्रहण, शरीर शुद्धि, पठन-पाठन तथा ग्राम या नगर में आहारार्थ जाने इत्यादि कार्यों को करने से पहले आचार्य आदि से विनय एवं वन्दनापूर्वक पूछना एवं उनकी आज्ञा-ग्रहण करना आपच्छा है ।।
७. प्रतिपच्छा-सार्मिक तथा गुरुओं आदि से जो पुस्तकादि उपकरण पहले लिये थे, उन्हें वापस देकर, उन्हें पुनः ग्रहण करने के अभिप्राय से पुनः पूछना । अथवा कोई बड़े कार्य का अनुष्ठान करना हो तो गुरु आदि से पूछकर पुनः साधुओं से पूछना प्रतिपृच्छा है ।
८. छन्दन-जिनकी जो पुस्तक, पिच्छी आदि उपकरण ग्रहण किये हैं । उनके अनुकूल ही उनका उपयोग करना अथवा वंदना, विनय और सूत्र का अर्थ पूछने में गणधर आदि की इच्छानुसार प्रवृत्ति करना छन्दन है ।
९. निमन्त्रणा-अन्य किसी से पुस्तकादि उपकरण के ग्रहण की इच्छा हो तो गुरुओं तथा सार्मिक साधुओं से विनयपूर्वक पुनः याचना करना अथवा ग्रहण कर लेने पर विनयपूर्वक उनसे निवेदन करना निमन्त्रणा है।"
१०. उपसंपत्-उपसंपत् का अर्थ है उपसेवा अर्थात् अपना निवेदन करना, गुरुओं को अपना आत्मसमर्पण करना । गुरु, आचार्य के प्रति अथवा गुरुकुल या गुरुओं के आम्नाय (संघ) में, गुरुओं के विशाल पादमूल में 'मैं आपका हूँ'इस प्रकार से आत्मसमर्पण करना और उनके अनुकूल प्रवृत्ति या आचरण करना उपसंपत् है । इसके पॉच भेद हैं- १. विनयोपसंपत्-अन्य संघ से
१. आचारसार २।११. २. वही ४।१३५. ३. जं किंचि महाकज्ज करणीयं पुच्छिऊण गुरु आदी ।
पुणरवि पुच्छदि साहू तं जाणसु होदि पडिपुच्छा ।। मूलाचार ४।१३६. ४. वही ४११३७. ५. गुरुसाहम्मियदव्वं पुच्छयमण्णं च गेण्हिदुं इच्छे ।
तेसिं विणयेण पुणो णिमंतणा होइ कायव्वा । वही ४।१३८. ६. मूलाचार ४।१३९ की वृत्ति तथा ४१२६ १२८ को वृत्ति ७, वही ४।१३९.
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