SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन हुआ है वह मिथ्या होवे, पुनः उस दोष को करना नहीं चाहता है और भाव से प्रतिक्रमण कर चुका है इस प्रकार दुष्कृत के होने पर मिथ्याकार होता है।' ३. तथाकार-गुरु द्वारा सूत्र और अर्थ का प्रतिपादन होने पर तहेव' (तथैव) अर्थात् आपने जो कहा वैसा ही है इस प्रकार कहकर अनुराग व्यक्त करना। अर्थात् गुरु के मुख से वाचना के ग्रहण करने में, उपदेश सुनने में और गुरु द्वारा सूत्र तथा अर्थ के कथन में "अवितहमेदत्ति" अर्थात् जो आप के द्वारा कहा गया यह सत्य हो है-'ऐसा कहना तथा पुनः सुनने की इच्छा रखना तथाकार है। ४. आसिका-वसतिका आदि से निकलते समय वहाँ के गृहस्थ या देवता आदि से 'आसिका' कहकर जाना अथवा पाप-क्रियाओं से मन को हटाना । अतः कन्दरा, पुलिन (नदी या सरोवर का जल रहित स्थान जिसे सैकत भी कहते हैं) तथा गुफा आदि रूप ठहरने आदि के स्थान से निकलते समय आसिका करना चाहिए। ५. निषेधिका-वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ पर स्थित देव या गृहस्थ आदि से स्वीकृति लेकर अर्थात् 'निराही' ऐसा शब्द कहकर वहाँ प्रवेश करना और ठहरना अथवा सम्यग्दर्शन आदि में स्थिर भाव रखना निषेधिका है । अर्थात् कन्दरा, पुलिन, गुफा आदि में प्रवेश करते समय निषेधिका करना चाहिए ! वस्तुतः वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ पर स्थित व्यन्त र आदि देवों के प्रति यह कहकर प्रवेश करना कि "मैं यहाँ प्रवेश करता हूँ, आप अनुमति दीजिए।" इस प्रकार की विज्ञप्ति को निषेधिका कहते हैं। आचारसार में कहा है हम यहाँ पर इतने दिन तक रहे, अब जाते हैं । तुम लोगों का कल्याण हो" -इस प्रकार व्यन्तरादिक देवों को इष्ट आशीर्वाद देना आर्शीवचन है। मुनि जिस गुफा में या जिस वसतिका में ठहरते हैं उसके अधिकारी व्यंतरादिक देव से पूछकर ठहरते हैं और जाते समय उनको आर्शीवाद १. जं दुक्कडं तु मिच्छा तं णेच्छदि दुक्कडं पुणो कादं । भावेण य पडिकतो तस्स भवे दुक्कडे मिच्छा ॥ मूलाचार ४।१३२. २. वायणपडिछण्णाए उपदेशे सुत्तअत्थकहणाए। . अवितहमेदत्ति पुणो पडिच्छणाए तधाकारो ।।वही ४।१३३. ३. कन्दरपुलिणगुहादिसु पवेसकाले णिसोहियं कुज्जा । तेहिंतो णिगमणे तहासिया होदि कायन्वा ।वही ४।१३४. ४. अनगार धर्मामृत ८।१३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy