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व्यवहार : ३०३ महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति अथवा पंचनमस्कार, षड् आवश्यक तथा चैत्यालय आदि में प्रवेश करते समय तीन बार 'निःसही' शब्द एवं उससे निकलते समय 'असिही' शब्द का उच्चारण- इस प्रकार इन तेरह क्रियाओं' का पालन भी व्यावहारिक जीवन में संयम की रक्षार्थं एवं अपने धर्म का विशुद्धिपूर्वक पालन करना चाहिए ।
संयम को बढ़ाने के लिए आठ शुद्धियों का विधान किया गया है । भिक्षा, ईर्ष्या, शयन आसन, विनय, व्युत्सर्ग, वचन, मन और काय शुद्धि । २ इन आठ शुद्धियों में भी मन अथवा भाव शुद्धि का विशेष महत्व है क्योंकि आचार के विकास का मूल भावशुद्धि ही हैं। कहा भी है- - सब शुद्धियों में भावशुद्धि ही प्रशंसनीय है । जैसे स्त्री पुत्र का आलिंगन भी करती हैं और पति का भी किन्तु दोनों के भावों में बहुत अन्तर है । अतः प्रत्येक व्यवहार में भाव शुद्धि होना आवश्यक है । काय शुद्धि से तात्पर्य है वस्त्राभूषणों से रहित ऐसा नग्न रूप जैसे जन्म के समय बालक का होता है। किसी अंग में कोई विकार न हो, सर्व साथघानतापूर्वक प्रवृत्ति तथा मूर्तिमान् प्रशमगुणवाला हो। इससे न तो स्वयं को दूसरों से और न दूसरों को अपने से भय होता है ।
३
महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
अर्थात् सभी कार्य ठीक
श्रमणों की दैनिकचर्या में समय की मर्यादा का भी सभी कार्य अपने निर्धारित सही समय पर करने से अनेक दोष और बाधायें दूर ही रहती हैं । अतः कहा भी है 'काले कालं समायरे' समय पर करना चाहिए ।" उत्तराध्ययन में कहा भी है से ( स्वाध्याय आदि धर्म क्रिया के लिए उपयुक्त समय का ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है ।
कि काल की प्रतिलेखना
ध्यान रखने से) जीव
१. भावपाहुड टीका, ७८, पृ० २२९, अनगार धर्मा ० ८।१३०. २. भिक्षेर्याशयनासनविनय व्युत्सर्गवाङ्मनस्तनुषु ।
तन्वन्नष्टसु शुद्धि यतिरपहृतसंयमं प्रथयेत् ।। अन० धर्मां० ६।४९.
३. सर्वासामेव शुद्धीनां भावशुद्धिः प्रशस्यते । अन्यथाऽऽलिङ्गयतेऽपत्यमन्यथाऽऽलिङ्गयते पतिः ॥
- अन० धर्मा० पृ० ४४७ के टिप्पण से उद्धृत.
४.
अन० धर्मा० ६।४९ ज्ञानदीपिका टीका । ५. दशवैकालिक ५।२।४.
६. उत्तराध्ययन २९।१६.
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