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३०२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन योग-अनुष्ठानों या आचरणों में प्रधान है। जिसने समस्त जीवों को प्रीति का आश्रय देकर अभयदान दिया है उस महात्मा ने सब तप और सब दान किये हैं।
इस प्रकार श्रमण के समस्त जीवन व्यवहार का लक्ष्य मूलगुणों, उत्तरगुणों एवं शीलगुणों आदि का विशुद्धतापूर्वक पालन करते हुए सम्पूर्ण आध्यात्मिक विकास पर केन्द्रित होता है । व्यवहार (लोक व्यवहार) की शुद्धि के लिए और परमार्थ की सिद्धि के लिए क्रमशः लौकिक और अलौकिक जुगुप्सा (निन्दा, गर्दा या घृणा) का त्याग कर देना चाहिए । सामान्य व्यवहार
श्रमण के सम्पूर्ण व्यवहार समदृष्टि की प्राप्ति के लिए होते हैं । वे जीवनमरण, लाभ-अलाभ इष्ट-अनिष्ट, स्वजन-परजन, संयोग-वियोग इत्यादि में रागद्वेषरहित होकर समत्वयोग की साधना करते हैं।
सत्रह प्रकार का संयमपूर्ण व्यवहार श्रमण की सहज प्रवृत्ति का द्योतक है । इसके अन्तर्गत पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति--ये पांच स्थावर काय तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय-ये चार सजीव-इनकी रक्षा से नौ प्रकार का प्राणिसंयम तथा तृणादिक का छेदन न करके अजीव काय को रक्षा, अप्रतिलेखन, दुष्प्रतिलेखन, उपेक्षासंयम, अपहृतसंयम तथा मन, वचन व काय का संयम-ये आठ प्रकार का संयम-इस प्रकार कुल सत्रह प्रकार के संयम का वे निरन्तर प्रयत्नमन से पालन करते हैं। कहा भी है-श्रमण को संयम (चारित्र) की विराषना न करते हुए लोक व्यवहार का शोधन प्रायश्चित्तादि द्वारा करना चाहिए । तथा व्रतों को भंग न करते हुए व्यवहार निन्दा का भी परिहार कर देना चाहिए । अर्थात् जिस कार्य से लोक में एवं विशिष्ट जनों में निन्दा होती हो उस कार्य का त्याग कर देना चाहिए और अहिंसादि व्रतों की कभी विराधना न करते हुए व्यवहार शुद्धि का पालन करें" । तेरह प्रकार की क्रियाओं में पांच
१. मरणभयभीरूआणं अभयं जो देहि सन्धजीवाणं ।
तं दाणाण वि दाणं तं पुण जोगेसु मूलजोगं पि ।। मूलाचार १०॥४८. २. ज्ञानार्णव ८1५४. ३. ववहारसोहणाए परमट्ठाए तहा परिहरउ ।
दुविहा चावि दुगंछा लोइय लोगुत्तरा चेव ।। मूलाचार १०५५. ४. मूलाचार ५।२१९-२२०. ५. संजममविराधतो करेउ ववहारसोधणं भिक्खू ।
ववहारदुगंछावि य परिहरउ वदे अभंजतो वही १०.५७.
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