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________________ व्यवहार : ३०१ रखना एवं मल-मूत्रादि का विसर्जन-ये सभी कार्य पूर्ण सावधानी से समितिपूर्वक करते हैं । जितेन्द्रिय रहते हुये सामायिक, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग-इन छः आवश्यक कार्यों में यथाविधि सतत् संलग्न रहते हैं । ___ अनियत विहारी वे श्रमण गुफा, वन या ऐसी एकान्त वसतिका में ठहरते हैं जहाँ प्राणी मात्र को जाने-आने में किसी तरह की बाधा न होती हो । आहार भी गृहस्थ के स्वेक्षापूर्वक देने पर अपने हाथों की अंजुलिपुट बनाकर खड़े-खड़े दिन में एक बार ग्रहण करते हैं। केश बढ़ने पर उन्हें कैंची आदि से काटते नहीं है, अपितु अपने हाथों से उनका लुचन कर लेते हैं। स्नान आदि नहीं करते । पैदल नंगे पैर ही चलते हुए ग्रामानुग्राम आदि स्थानों में सदा विहार करते हैं, किसी प्रकार की सवारी का उपयोग नहीं करते । वस्त्राभूषणों को मूर्छा (आसक्ति या ममत्वभाव) का कारण समझकर उनका सर्वथा त्यागकर देते हैं और सब ऋतुओं में नग्न रहते हैं । भूमि या इस जैसे निर्जन्तुक स्थानों पर सोते हैं, दातीन करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। गृहस्थों से अधिक ममत्व न बढ़े इसके लिए वे एक स्थान पर निरन्तर बहुत अधिक नहीं ठहरते हैं। इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों का पालन श्रमण जीवन के कसौटोपूर्ण व्यवहार है। इन्हीं की मर्यादाओं के अन्तगंत वे अपने समस्त व्यवहारों में प्रवृत्त होते हैं। मूलगुणों के अतिरिक्त उत्तरगुणों के व्यवहार से श्रमण जीवन में पूर्णता आती हैं । इनमें दस धर्म एवं बारह प्रकार के तपों का आचरण, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य---इन पाँच आचारों का पालन तथा निरन्तर वैराग्यवृद्धि हेतु बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) का चिन्तन करते हुए आत्म-कल्याण में ये श्रमण सदा केन्द्रित रहते हैं। कलुषता, मोह, इच्छा, राग-द्वेष आदि अशुभ भाव, तथा पाप के कारणभूत विकथाओं के भाषण का त्याग, बंधन, छेदन, संकोचन, प्रसारण आदि रूप शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक क्रियाओं से युक्त होकर गुप्ति का पालन करते हैं । प्रमाद रहित तथा संयमघातक कार्यों को छोड़कर अपने श्रामण्य जीवन में समतापूर्वक बाईस परीषहों को स्वेच्छापूर्वक सहते हैं । सभी प्राणियों से उनका सहज मैत्रीभाव होता है । वे पूर्ण अपरिग्रही होते हैं अतः औषधि, आहार आदि का दान तो वे नहीं कर सकते किन्तु सभी प्राणियों को अभयदान देते हैं । मूलाचार में कहा है-मुनि मरण के भय से भयभीत सभी जीवों को अभयदान (जीवनदान) देता है क्योंकि वह सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव का मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से घात नहीं करता, न किसी प्रकार की बाधा पहुंचाता है इसलिए यही अभयदान सभी दानों में उत्तम तथा सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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