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विहार चर्या : २९९ एवं अन्य विशेष परिस्थितियों के अतिरिक्त श्रमणों को सदा विहार करते रहने का विधान है।
मूलाचारकार ने जहां श्रमण के लिए अनियत विहार को विवक्षा की है वहीं एकाकी विहार की घोर निन्दा भी की है । इसमें मुख्य यही दृष्टि रही है कि एकाकी विहार में संयम को विराधना सतत् बनी रहती है। जबकि ससंघ अथवा दो से अधिक श्रमणों के साथ विहार करने में ऐसी सम्भावना नहीं रहती । वस्तुतः संयम पालन में परस्पर के आदर्शों और प्रेरणाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । इससे श्रमण अनेक दोषों से स्वाभाविक रूप में बचा रहता है। इसी दृष्टि से एकाकी विहार का निषेध किया गया ।
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